(6) बाईस कोप का खेल
तवा संगीत(6): बाईस कोप का खेल।
पंकज खन्ना
9424810575
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हमारी पीढ़ी शायद आखरी पीढ़ी है जिसने बायोस्कोप (Bioscope) और बायोस्कोप वालों को बचपन में मोहल्लों कॉलोनियों में फेरी लगाते देखा है। अब इसे देखने के लिए या तो किसी संग्रहालय में जाना होगा या फिर इसे आप वार त्यौहार या किसी खास मौके पर दिल्ली में इंडिया गेट, प्रगति मैदान या दिल्ली हाट में देख सकते हैं। मुंबई या अन्य शहरों में भी इसे किसी खास अवसर पर ही देखा जा सकता है।
मध्यम वर्गीय या गरीब बच्चे बायोस्कोप द्वारा सर्वप्रथम फिल्मों से और ग्रामोफोन से रूबरू होते थे। सामान्यतः छोटी उम्र में बच्चों को पिक्चरें नहीं दिखाई जाती थीं। बच्चे लोगों को बायोस्कोप दिखाकर खुश करने की असफल कोशिश की जाती थी। बच्चे बायोस्कोप देखने के बाद अन्य बच्चों से फिल्मी कहानियां सुन सुन कर असली पिक्चर देखने के लिए मचलते थे, जिद करते थे और फिर चांटे खाकर मोहल्ले में खेलने निकल जाते थे। ये चांटे खाना वाला कार्यक्रम रोज का था!
सात आठ साल के रहे होंगे तबसे बायोस्कोप देखना शुरू किया था।पारसी मोहल्ले में सभी इसे 'बाईस कोप' कहते थे, हम भी सालों तक यही नाम समझते रहे। अच्छे से याद है कि मनमोहक रंगो की पगड़ी पहने मालवी महक, मनमोहक मूरत और मौजी मिजाज के मालिक, मस्त स्वभाव के एक बायोस्कोप वाले मसखरे मामा एक दो महीनों में अक्सर इतवार या किसी छुट्टी के दिन सर पर भारी भरकम रंगीन चमचमाता बायोस्कोप और कंधे पर स्टैंड लटकाकर आते थे। वो बांसुरी बजाकर, नाना प्रकार के मालवी-हिंदी लोकगीत गाकर और फिर बाद में बायोस्कोप के अंतर्निहित (Inbuilt) ग्रामोफोन पर तवे से हिंदी गाने सुनाकर धूम मचा दिया करते थे।
धोती पहने पगड़ीधारी मामा की मटमैली मोटी सफेद फ्रॉक नुमा गंजी में 5 द्वार (जेब) होते थे।दो ऊपर, दो नीचे और एक बड़ा बीच में। ये आते ही स्टैंड को गुलमोहर या मोरसली* के पेड़ के नीचे सामरिक (Strategic) स्थान पर रखकर बीच के द्वार से बांसुरी लहराते हुए निकालते थे।
उनकी मीठी बांसुरी की आवाज सुनते ही 6 से 12 साल के बच्चे क्रिकेट/फुटबॉल/सत्तोलिया/पॉकेट/बिल्ले/कंचे/गुल्ली डंडे या कोई भी दूसरा देशी खेल खेलना भूलकर चिल्लाते , धूल उड़ाते और ढीली-ढाली चड्डी को ऊपर सरकाते हुए भागकर उनके आसपास पहुंच जाते थे। कुछ बच्चे खाना छोड़कर भागे चले आते थे, माताएं छड़ी या बेलन लिए पीछे पीछे।
याद तो नहीं है पर शायद बायोस्कोप के ऊपर लगे ग्रामोफोन के भोंपू को देखकर मोहल्ले के कुत्ते भी इकट्ठा हो जाया करते होंगे! तवों पर बने फ़ोटो देखकर तो ऐसा ही लगता है! ये भी हो सकता है की सिर्फ विलायती कुत्ते ही ग्रामोफोन के भोंपू में घुसकर संगीत का रसास्वादन करते हों!
सच तो ये है की सभी पीढ़ी के लोग इकठ्ठे हो जाया करते थे बच्चों को बायोस्कोप दिखाने के बहाने।जब तक बच्चे बायोस्कोप देखते थे, मंजियों (खाटों) पर खाली-पीली बैठे बड़े बूढ़े ध्यान मग्न होकर फ्री में ग्रामोफोन पर गाने सुनना कभी नहीं भूलते थे! भले रेडियो पर कितना भी सुना हो, ग्रामोफोन पर भी सुनेंगे!! फोकट में है तो आन दो, ये बीमारी प्राचीन काल से चली आ रही है!
इतनी चिल्लाऊ और ऊर्जाऊ भीड़ तो कन्हैया के पनघट पर आने के बाद भी शायद ही आती होगी। गोपियों की पनघट पर भीड़ हो या बच्चों की बायोस्कोप पर; आप तो ये गाना देखिए और सुनिए। इसे गाया है स्वर्गीय मन्ना डे के चाचा नेत्रहीन स्वर्गीय श्री खुशालचंद डे ( K C Dey) ने 1934 में बनी फिल्म विद्यापति में: पनघट पे कन्हैया आता है।**
सबसे पहले वो बायोस्कोप की छत पर लगे ग्रामोफोन से यही गाना सुनाया करते थे। । बच्चों को इस गाने में सिर्फ कॉमेडी सुनाई पड़ती थी, खी-खी करके हंसते थे। इस बहुत पुराने गाने को सुनकर पिताजी की पीढ़ी के लोग भी खुश नहीं होते थे, उन्हें राजकपूर, देवानंद या दिलीप कुमार पर गवाए गए गाने अच्छे लगते थे।
पर मोहल्ले के दादा दादी लोग ये गाना सुनकर प्रसन्न हो जाते थे। वो जमाना अलग था, चलती दद्दू लोगों की थी। उस जमाने के फेरीवाले, चाहे वो दर्द निवारण आयुर्वेदिक तेल बेचते हों, हाथों की चूड़ी या बायोस्कोप की पिक्चरें, सभी विपणन (Marketing) के विशेषज्ञ थे क्योंकि वो निगमित क्षेत्र ( Corporate Sector) के मुलाजिम तो थे नहीं ! वो अच्छी तरह से जानते थे किसको खुश करके कब, क्या ,कहां और कैसे बेचना है।
मामा अधेड़ उम्र के थे पर अपने आप को कन्हैया से कम नहीं समझते थे और बीच बीच में भोजियोँ से चुहलबाजी करने से चूकते नहीं थे। भोजियों को खुद की मर्दानी आवाज में उन दिनों का नया पर थोड़ा फूहड़ गाना, 'आया आया अटरिया पे कोई चोर' (1971) सुना दिया करते थे और शरमाई सकुचाई भोजियों के बच्चों के टिकट सुरक्षित कर लेते थे।
पगड़ीवाले मामा दद्दूओं को और खुश करने के लिए के एल सहगल का बच्चों के लिए गाया गाना 'एक राजे का बेटा, लेकर उड़नेवाला घोड़ा' भी लगा देते थे। साठ के दशक के पैदा हुए संस्कारी बच्चे 1910-20 के दशक के पैदा हुए बच्चों के पसंद वाले इस गाने को शर्मा-शर्मि में पसंद कर लेते थे। दादा-दादी को खुश रखना भी जरूरी था।अतिरिक्त जेब खर्च वहीं से निकलता था!
बच्चों के और गाने भी सुनाये जाते थे: छुन छुन करती आई चिड़िया और नन्हे मुन्ने बच्चे तेरी मुठ्ठी में क्या हैै टाइप केl राज कपूर का 'मेरा जूता है जापानी' हर फेरी में अनिवार्य रूप से बजाया जाता था। ये गाना सभी पीढ़ी के लोगों को पसंद आता था।
एक बार में तीन-चार बच्चों को बायोस्कोप दिखाया जाता था। चार पांच मिनट का शो होता था। बायोस्कोप के ऊपर दो चाबीनुमा हैंडल होते थे। एक ग्रामोफोन के लिए और दूसरा चित्रों को आगे सरकाने के लिए। देवी-देवताओं, हीरो हीरोइन, गांधी, नेहरु , भगतसिंह, लालकिला, ताजमहल, कुतुब मीनार, संसद, राष्ट्रपति भवन, बाग-बगीचे, फूल आदि के रंगीन चित्र प्रदर्शित किए जाते थे।मोहल्ले के बढ़े बच्चों ने ज्ञान बांट रखा था की कुल बाईस फोटो होती हैं इसलिए इसे बाईस कोप कहते हैं! हमने तो कभी गिनने की कोशीश नहीं की!
कुछ बच्चे यकायक फोटो देखते-देखते खड़े हो जाते और ग्रामोफोन देखने लगते थे। मामा उनके सर को दबाकर फिर से बायोस्कोप की खिड़की पर ठूंस देते थे।हम भी उनमें से ही एक थे। थोड़ी देर शांति से उकडू बैठ कर फोटो नहीं देख पाते थे। बस घूमता तवा, हिलती सुई, डोलती हुई चाबियां और बजता हुआ भोंपू दिख जाए!!
1972 की बात होगी, ऐसे ही किसी इतवार को शो खत्म होने के बाद कुछ बड़े लोग पैसे देने के नाम पर चिक चिक करने लगे कि पिछली 5 सालों से 20 पैसे ले रहे हो तो इस बार चवन्नी क्यों?
हमारे पारसी मोहल्ले के फितरती, फुरसती,फर्जी, फ्री-फोकट-फंटूश फूफा तो फिराक में रहते थे कि कहीं फसाद हो तो टांग फसाएं और फुफाई का फर्ज निभाएं। मोहल्ले के बच्चों के साथ इतना बड़ा अन्याय? 20 पैसे के बदले 25 पैसे मांग लिए? ये देखते ही फौरन फिक्रमंद फूफा ने फेरीवाले मामा की फजीहत करते हुए फिजूल फरमान जारी कर दिया कि अगली बार यहां फिरते हुए दिखे तो फुर्र से समान का फालूदा बनाकर फुर्र से फेंक देंगे। सुनकर मामा जो मिला वो लेकर चले गए।***
मोहल्ले के फूफा उसी दिन नरेन नाई के साथ शाम को नजदीक के टॉकीज में एक साठ ( एक रुपए साठ पैसे का सबसे आगे का टिकिट) वाली सीट पर बैठकर फिल्म 'दुश्मन'(1972) देखते पाए गए। फिल्म उन्हीं दिनों रिलीज हुई थी। इस फिल्म में बायोस्कोप पर सबसे प्रसिद्ध एक नाटकीय गाना है। जो फिल्म में 'बायोस्कोप वाली' मुमताज पर फिल्माया गया है। उच्च स्वरों में गाया हुआ है: पईसा फेंको तमाशा देखो,...... देखो देखो बायोस्कोप देखो। ये तो अब दुनिया की रीत ही हो चुकी है: पैसा फेंको , तमाशा देखो।
इस गाने में मुमताज के लटके झटके देखकर और गाना सुनकर फूफा ने चार-छह रुपए की चवन्नियां तो यूं ही लुटा दीं थीं। यहां क्लिक करके गाना देख सकते हैं।
सत्तर के दशक से ही इंसानों की संवेदनहीनता , संगीत की स्तरहीनता , गीतों में ओछापन,और नृत्यों में फूहड़ता परवान चढ़ने लगी थी।सांस्कृतिक मूल्यों में निर्बाध गति से गिरावट शुरू हो चुकी थी। फिल्मों और फिल्मी गानों ने एक नई राह पकड़ ली थी जिसे एक बहुत बड़े दर्शक वर्ग और श्रोता वर्ग ने सहर्ष स्वीकार किया तो हमें कोई शिकायत नहीं होनी चाहिए।बस दिल की बात लिख दी।
मोहल्ले के पारसी अंकल**** को भी मालूम पड़ा कि बाईस कोप वाले मामा के साथ अन्याय हुआ था। उन्होंने बाईस कोप वाले मामा के बेटे की नौकरी दो चार दिनों में उसी सिनेमा हाल में लगवा दी जहां फूफा ने मुमताज़ पर चवन्नियां लुटाई थीं।
मामा को तो उनके हक की चवन्नियां नहीं मिली पर उनके बेटे ने इस 'पईसा फेंको तमाशा देखो' वाले गाने पर भर-भर के चवन्नियां लूटीं। इति बाईस कोपम!
पंकज खन्ना
इंदौर
9424810575
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* गुलमोहर का पेड़ और छोटा सा मैदान तो निर्माण की बलि चढ़ गया पर मोरसली का पेड़ पुराने घर के सामने स्थित संयोगितागंज थाने के प्रवेश द्वार के पास आज भी मजबूती से खड़ा है लेकिन मोरसली के फल खाने वाले बच्चे पता नही कहां गुम हो गए। इस पेड़ को बकुल, मौलसरी, मौलसिरी, मौलश्री, मुकुर, सिंघ केसर आदि नामों से भी जाना जाता है। Botanical name:Mimusops elengi
इसका फल हल्का मीठा, पकने के बाद नारंगी लाल होता है और इसका आकार लगभग काजू के बराबर होता है। ये फल दांत और पेट संबंधी समस्याओं के लिए लाभप्रद माना जाता है। अंग्रेजी में इसे Spanish Cherry, Medlar, और Bullet Wood आदि नामों से जाना जाता है।
अब इस फल को खाने का रिवाज़ नही रहा। हम सुबह के समय सैर के साथ कभी कभी SGSITS के सामने लगे कम ऊंचाई वाले पेड़ों से मोरसली तोड़कर Foraging (खाना खोज के खाना) का मजा ले लेते हैं। मोरसली खाने के मामले में आज भी कोई प्रतियोगिता (Competition) नहीं है!
** बहुत ही सादे शब्दों में केदार शर्मा ने इस गाने की रचना की है। शब्दों का मतलब आत्म-व्याख्यात्मक (Self Explanatory) है। इसे गाना कहना तो ठीक नहीं होगा, प्रेरणादायक भजन कहना उचित रहेगा।
बेहतरीन संगीत स्वर्गीय रायचंद बोराल का है।
हरि चरनन में सफल होत सब पूजा -2
जब कोई मुसाफ़िर अन्धियारे में
अपनी राह खो जाता है -2
फिर मनमोहनया हाथ पकड़ कर
उसको राह दिखाता है -2
बच्चा: तुम रुक क्यूँ गये बाबा, गाओ ना
गाऊँ क्या गाऊँ बेटा
बच्चा: वही पनघट पे कन्हैया
ओह अच्छा
पनघट पे कन्हैया आता है
आ कर धूम मचाता है -2
सखियों को
सखियों को नाच नचाता है
वो बाँसुरिया ले आता है -2
और मीठी तान सुनाता है -2
पनघट पे कन्हैया आता है
आ कर धूम मचाता है
पनघट पे कन्हैया आता है
मोहन को माखन भाता है
वो माखन ख़ूब चुराता है -2
खाता है और गँवाता है
खाता और गँवाता है
सखियों को बहोत सताता है -2
पनघट पे कन्हैया आता है
आ कर धूम मचाता है
पनघट पे कन्हैया आता है
***सत्तर के दशक के अंत तक बायोस्कोप वाले गांवों कस्बों तक सीमित हो गए थे। पहले टीवी और बाद में बड़े पैमाने पर मोबाइल के चलन के बाद बायोस्कोप वाले गांव और कस्बे से भी पूरी तरह बाहर हो गए। सब कुछ सीखा इन्होंने पर न सीखी होशियारी। वक्त के साथ न बदले और धीरे धीरे हमारी जिंदगी से लुप्त हो गए। ईमानदारी, विपणन में निपुणता, गायकी में अल्हड़पन, बांसुरी की मिठास और कड़ी मेहनत सब धरी की धरी रह गई।
****उन पारसी अंकल ने पगड़ी वाले मामा के बेटे की नौकरी कैसे लगवाई ये कहानी सुनाना बहुत जरूरी है, उन्ही की स्टाइल में। इंतज़ार करना होगा थोड़ा सा। इंदौर के पारसी मोहल्ले का पारसी थियेटर जल्दी शुरू होने वाला है!
अभी तो बायोस्कोप पर बहुत सारी बातें होना बाकी हैं: बायोस्कोप का इतिहास, बायोस्कोप की संरचना , स्कूलों के प्रोजेक्ट में बायोस्कोप का बनाया जाना। अगले किसी अंक में आने वाले महीनों में जरूर इन सब पर भी बातें होंगी।🙏🙏🙏