(14) तवे पर चित्रकारी।
तवा संगीत: (14) तवे पर चित्रकारी
पंकज खन्ना, इंदौर
9424810575
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चलो आज फिर बचपन की सुकून भरी जिंदगी में गुदगुदी करते हैं और कुछ नया वाला 'पुराना' ढूंढ लाते हैं! बचपन की गर्मी की छुट्टियां बहुत लंबी और मनोरंजक होती थीं। सभी बच्चों के लिए मैदान थे। कुछ भी खेलो! क्रिकेट, फुटबॉल, हॉकी, गुल्ली-डंडा, सत्तोलिया , कंचे, पांचे, लंगड़ी, पॉकिट-बिल्ले-चिब्बी, लट्टू, खो-खो, कबड्डी, कुश्ती, आटया-पाटया, गुलाम-डंडी, टायर घूमाना, चोर-सिपाही, नदी-पहाड़, सहायता-छुट्टी और भी पता नहीं कितने देशी-विदेशी खेल होते थे।
वो भला सीधा-साधा जमाना था। टीवी, कंप्यूटर और मोबाइल नहीं थे। मैदानों पर सरकारी अतिक्रमण नहीं था। बच्चे मैदानों पर सुबह-शाम खेलते नज़र आते थे क्योंकि जिमखाना मैदान टाइप के बीसियों मैदान आम बच्चों के लिए होते थे, उनमें से कुछ आज भी हैं पर सिर्फ 'बड़ों' के खेलने/खाने/पीने के लिए।
समस्या सिर्फ दोपहर की होती थी कि घर में क्या करें!? दोपहर में कैरम बोर्ड , शतरंज, लुडो, सांप-सीढी, अष्टा-चंगा-पे, ताश आदि खेलते थे, लेकिन जल्दी ही ऊब जाते थे। किसी कोचिंग क्लास में जाते नहीं थे, तो बच्चों में सृजनात्मक और व्यक्तित्व का भी समग्र विकास हो जाता था!!
बच्चे तब भी गाते, ड्राइंग-पेंटिंग, तवों (78 rpm के रिकॉर्ड्स) पर पेंटिंग आदि करते थे। कुछ लिख लेते थे और उस जमाने का चालू बाल साहित्य भी पढ़ लेते थे जैसे: राम और श्याम, रंगा-गंगा और राम-रहीम के बाल जासूसी उपन्यास।
दुस्साहस/एडवेंचर/जांबाजी की भी कुछ कमी नहीं थी। कई बार तो भरी दोपहर में रेसीडेंसी के 'जंगल' ( जिसे पिछले 35-40 सालों से रेसीडेंसी गार्डन में बदल दिया गया है) में इमली, आम, जामुन तोड़ने के लिए घुस जाया करते थे।
वहां माली से लुका-छुपी होती रहती थी। हम लोगों का गणित बिल्कुल सरल था। सिर्फ एक पिटेगा, बाकी भाग लेंगे, पिटने वाले को हिस्सा दे दिया जाएगा! जंगली जानवरों वाला सिद्धांत याद रखना था,आंख और कान खुल्ले रखो, भागने को तैयार रहो। सिर्फ अंतिम नहीं होना है दौड़ में! अगर गलती से पकड़े गए तो माली बेरहमी से ऐसे कान मरोड़ देता था कि आंख में आंसू और दिमाग में ये अंतरा आ जाता था: ये फूल चमन में कैसा खिला, माली की नज़र में प्यार नहीं! सब कुछ बटोरने के बाद, आखरी साथी के छूटने के बाद, हंसते हुए चिल्लाकर भागते थे: माली, तेरी मालन काली!
और फिर घंटों तक आम, इमली, कबीट, जामुन के स्वाद के साथ खिलखिला कर हंसते रहते थे; माली-मालिन को याद करते हुए! आज उन माली-मालिन के परस्पर प्यार को याद करते हुए प्रस्तुत है एक बेहतरीन पुराना गीत जिसे गाया है वसंती और विष्णुपंत पगनिस ने फिल्म संत तुलसीदास (1939) में। गाने के बोल लिखे हैं प्यारेलाल संतोषी ने और संगीत रचा है ज्ञानदत्त ने। गाने के बोल हैं: मेरे मन की बगिया फूली माली। माली-मालिन के प्रेम पर इससे अच्छा गीत फिर कभी नहीं आया।
अभी कितनी भी तारीफ कर लें, उस समय तो बस माली था हमारा दुश्मन! इसी बात पे हेमंत कुमार का ये गैर-फिल्मी गाना सुनते चलें। भला था कितना अपना बचपन! इसे लिखा है फैयाज हाशमी ने और संगीत से संवारा है कमल दासगुप्ता ने सन 1945 में। ये कोर्स का गाना है। सुनना जरूरी है।
बचपन के छह और पुराने सुरीले गाने यहां एकत्रित कर दिए हैं, संदर्भ के लिए:
बचपन के दिन भुला न देना (दीदार 1951) नौशाद
बचपन की मोहब्बत को (बैजू बावरा 1952) नौशाद
बचपन के दिन भी क्या दिन ( सुजाता 1959) एसडी बर्मन
बचपन ओ बचपन (मेम दीदी 1961) सलिल चौधरी
कोई लौटा दे मेरे (दूर गगन की छांव में 1964) किशोर कुमार
वो कागज़ की कश्ती (गैर फिल्मी गाना 1982) जगजीत सिंह
अभी के लिए सिर्फ ये 7 गाने! समय निकालकर सुनिए जरूर।
भोत हो गया इधर-उधर! लौटते हैं तवों पर। सन 72-74 तक 78 rpm वाले नए तवे लुप्तप्राय या अप्रचलित हो गए थे। पारसी मोहल्ले के दिगंबर जैन मंदिर के सामने की गली में जहां आज जनरल स्टोर्स हैं ,वहां पहले 2-3 कबाड़ियों की दुकानें थीं। हम बच्चे वहां से पुराने घिसे हुए तवे 50 पैसे में खरीद के लाते थे। अपेक्षाकृत नए तवे एक रुपए में मिलते थे।
पारसी अंकल से रिक्वेस्ट करते थे कि अंकल प्लीज पुराने वाले रिकॉर्ड दे दीजिए। वो 'बटक' के अंडे और समोसा खिलाने को हमेशा तत्पर रहते थे पर रिकॉर्ड मांगो तो ऐसे घूरते थे जैसे उनके दुबले-पतले शरीर के कुल जमा ढाई लीटर खून में से किसी ने 3 लीटर खून मांग लिया हो। ऐसा था उनका कि पानी मांगोगे तो अंडे देंगे। तवा मांगों तो डंडे देंगे।
मां-बाप से 50 पैसे निकालने के लिए काफी मिन्नतें करनी पड़ती थीं। आस पास के लोग बोलते थे कि ये क्या लड़कियों वाला शौक पाल लिया है! ऐसे ही बहुत सारे और प्रश्नों के जवाब देने पड़ते थे, हिसाब देना पड़ता था। फिर बड़ी मुश्किल से दो-तीन दिन में पैसे मिल ही जाते थे।
हमारे समान बहुत सारे बच्चे-बच्ची इन तवों पर 'सीन-सीनरी' की पेंटिंग करते थे। (ये शब्द सीन-सीनरी बहुत प्रचलित था हमारे बचपन में।फिल्मों में , रेल के डिब्बों से, बस की खिड़कियों से... हर जगह जो दिखता है उसे सीन-सीनरी कहते थे।)
तवों को समर्पित इस ब्लॉग में इस प्रकार की तवों पर की जाने वाली चित्रकारी को तवाकारी कहना गलत नहीं होगा। पेंटिंग बनाने के बाद एक दूसरे के घर अपनी तवाकारी दिखाने भी जाते थे।
तवाकारी सिर्फ पेंटिंग तक ही सीमित नहीं थी। तवों की घड़ियां भी बनाई जाती थीं। तवों के एक साइड में घड़ी का मैकेनिज्म लगा दो और दूसरी साइड में घड़ी की सुइयां लगा दो। तब घड़ी का मैकेनिज्म चीन से नहीं आता था तो बहुत महंगा होता था। इसलिए तब तवे की घड़ियों का चलन कम था।(अब तो घड़ी की मशीन सिर्फ 40-50 रुपए में आ जाती है। बहुत सारे लोग अब तवों की घड़ियां बनाकर ऑनलाइन बहुत महंगे दामों में 'आर्ट' के नाम पर बेच भी रहे हैं।)
कुछ बच्चे तवे को उबलते पानी में डालकर, फिर मोड़-तोड़ करके उसके गुलदान भी बनाया करते थे।और फिर उस गुलदान को भी पेंट करते थे। कुछ लोग बस ऐसे ही दीवारों पर तवों को 'शो' के लिए चिपका दिया करते थे। अब फिर से Vinyl वाले तवों को नए मकानों में ड्राइंग रूम में चिपकाने का रिवाज़ जोर पकड़ रहा है। तवाबाजी से हवाबाजी करने की योजना लेकर एक इंटीरियर वाला दोस्त हमसे भी तवे ऐंठने की कोशिश कर चुका है! बदतमीज!!
हर तीसरे निम्न-मध्यमवर्गीय/मध्यमवर्गीय घर में बच्चों द्वारा बनाई गई ये पेंटिंग्स दीवारों पर कई सालों से लटके बहुत सारे पुराने भगवान वाले कैलेंडरों और बंद पड़ी पेंडुलम/'दीवाल' घड़ियों के बीच में लटके देखे जा सकते थे। ये तवाकारियाँ लो वॉट के पीले गुलुप ( Bulb) की रोशनी में सन कर बहुत सुंदर दिखा करती थीं।
'धीरे-धीरे ये तवाकारियां भी अप्रचलित होती गईं और ये पुनः कबाड़ीवालो के पास पहुंचना शुरू हो गईं। उन सभी तवाकारियों की बहुत याद आती है।*
ठीक से सन याद तो नहीं है पर 20-25 साल पहले किसी रविवार को जिंसी हाट से मात्र 5 रुपए में एक तवा खरीदा जिसके एक तरफ पेंटिंग थी और दूसरी तरफ बेतरतीब पेंट के छींटे। तब पुराने तवे 10 रुपए में मिल जाया करते थे। क्योंकि ये पेंटेड था तो इसकी कीमत कम थी। अब यही एकमात्र पेंटेड तवा है हमारे पास। इसकी तस्वीर नीचे लगाई है। बचपन की भाषा, इंदौर की भाषा, में बोलें तो तवे में भोत सई सीन-सीनरी है। सामने वाले ने या सामने वाली ने लपक के रंग भरे हैं तवे में ! तवे के दक्षिण-पूर्व में कलाकार का नाम लिखा है: सरोज! दया, पता लगाओ, आखिर है कौन ये सरोज!?
आपको तो व्हाट्सएप के मैसेजेस का अनुभव है ही कि कैसे गुमशुदा बच्चों को ढूंढा जाता है! समझ गए ना!?
इस ब्लॉग को इतना वायरल करिए कि ये मेसेज सरोज तक पहुंच जाए! ;)
तवा तो नही दे पाएंगे इनको, पर ज्ञान जरूर बांट देंगे ऐवज में!
9424810575
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* हमने भी बचपन में 6-7 तवों पर पेंटिंग की थी। 1978 में जब SGSITS इंदौर में फर्स्ट ईयर में आए तो अपने आपको बहुत परिपक्व समझने लगे।बचपन में इकठ्ठे किए गए रंग बिरंगे कंचे,पॉकेट, बिल्ले, चिब्बी, क्रिकेटर्स की फोटो और ऐसी पेंटिंग बचकानी चीज़ें लगने लगीं। और फिर 1978 की ही दिवाली की सफाई में इन सब चीजों को फेंक दिया गया या कबाड़ीवाले को दे दिया गया।
अब इच्छा होती है की भले ही ये तवे वापस ना मिलें पर एक बार इनकी फोटो देखने को मिल जाए। हो सकता है हमारे तवे भी कहीं किसी कोने में साबुत बचे हों! अब ज्यादा जिज्ञासा तो इस बात की है कि किन रिकॉर्डस को हमने रंगा था! कहीं वो कोई बहुत दुर्लभ रिकॉर्ड तो नहीं थे?
बचपन की आदत थी कि अपने नाम और सरनेम को अलग अलग स्टाइल में लिखते थे। और ये चित्रित नाम और सरनेम लाल-पीले-हरे रंगों में छोटे-छोटे अक्षरों से तवों के ऊपर-नीचे लिख दिया करते थे। इन चित्रात्मक हस्ताक्षरों का नमूना नीचे की फोटो में दिया है:
किसी तवाबाज़ के पास कोई पेंटेड तवा हो तो कृपया ये हस्ताक्षर देख लें! क्या पता हमारे तवे आज भी जिंदा हों! आप और हम जानते हैं, दुनिया में चमत्कार संभव हैं!🤗🙏🙏🙏