(11) कबाड़ीवाला

तवा संगीत: (11) कबाड़ीवाला !


पंकज खन्ना, इंदौर

9424810575


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संगीत के तवों (रिकॉर्ड्स) के आज तक अस्तित्व में रहने के पीछे सबसे ज्यादा योगदान कुछ जिद्दी तवा संग्राहक-श्रोताओं, शहरों के कबाड़ीवालों  और कुछ पुरावस्तु व्यवहारियों का रहा है। संग्रहकर्ताओं के बारे में तो ढेर सारी बातें करेंगे ही करेंगे आने वाले अंकों में। आज हम सिर्फ कबाड़ीवालों की बातें करेंगे।  इस लेख को पढ़ने के बाद शायद आपकी कबाड़ीवालों के प्रति राय बदल जायेगी।

सबसे पहले कबाड़ियों को समर्पित ये गानानुमा रचना सुन लें।ये प्राकृतिक संगीत और मानव निर्मित आवाजों की जबरदस्त  जुगलबंदी है। अच्छा तो ये रहेगा की आप इस रचना को  बैकग्राउंड में चलने दें और ब्लॉग पढ़ते रहें। इस रचना में आप तराजू बाट  की आवाज, कबाड़ीवालों की आवाज( पेपर,रद्दी पेपर, कबाड़ी, कबाड़ीवाला,...)  के साथ-साथ कोयल, कौव्वे, तोते, नीलकंठ, और दीगर चिड़ियाओं की आवाज भी सुन सकते हैं। दूर से  एक कुत्ते के भौंकने की आवाज भी सुनाई देगी।  आप हथौड़े की आवाज भी सुन सकते हैं । ये निहाई ( Anvil) पर गिरकर उम्दा संगीत उत्पन्न कर रहा है। इन सब कर्कश समझी जाने वाली आवाजों से भी कितना मधुर संगीत उत्पन्न हो सकता है, सुनें और आनंद लें।

पश्चिम के कुछ चौधरी देश कुछ सालों से  पुनर्चक्रण (Recycling) की बाते कर रहे हैं, बिना उपभोक्तावाद (Consumerism) की संस्कृति को छोड़कर और बगैर पुनर्प्रयोग (Reuse) को प्रोत्साहन दिए। उन्हें शायद ये नहीं मालूम कि हमारे देश के सभी शहरों के कबाड़ी सैकड़ों सालों से ये काम बखूबी कर रहे हैं। ये सचमुच के पुनर्चक्रण प्रतिनिधि (Recycling Agent) हैं। हम तो चाहते हैं इन्हें एक नया नाम दिया जाए: पुनर्चक्री, या पुनर्चक्री योद्धा।

ये कबाड़ीवाले घरों में आते हैं, बेकार की काम में न आने वाली वस्तुएं ले जाते हैं और बदले में कुछ रुपए भी दे जाते हैं! इन कबाड़ीवालों द्वारा घर के हर कचरे को यथा संभव उपयोग या पुनर्प्रयोग ( Reuse) के लिए वितरित किया जाता है और जिस वस्तु का पुनः उपयोग संभव न हो सिर्फ उसका ही पुनर्चक्रण किया जाता है। उपभोक्तावाद पर अंकुश लगाना और सही मायने में Reuse करने के बाद Recycle करना ; ये बात पश्चिमी देशों को समझने और अपनाने में थोड़ा समय लगेगा। 

कबाड़ के लेन-देन और Reuse में भी एक फलसफा है जिसे फिल्म नीलकमल (1968) में मन्ना डे/महमूद ने बहुत खूबसूरती से गाकर बताया है: खाली डब्बा खाली बोतल ले ले मेरे यार...। इस गाने के बोल लिखे हैं साहिर लुधियानवी ने और संगीत दिया है रवि ने। इस गाने का  फलसफा बहुत गहरा है: खाली से मत नफरत करना, खाली सब संसार।🙏

सत्तर-अस्सी के दशक तक कबाड़ीवालों के ठेलों या दुकानों का चरित्र बहुत अलग था। विशेषतः दीवाली के मौसम में इन ठेलों/दुकानों पर रद्दी पेपर,लोहा,तवों के अलावा और भी बहुत सुंदर ,अनोखी पुरावस्तुएं दिखाई दे जाती थीं। ये कबाड़ी बड़े जुगाड़ी होते थे। उनकी दुकानों में बहुत सारे जुगाड के चलते फिरते  यंत्र ( Gadgets) भी होते थे जैसे टूटे-फूटे लेकिन जगमग करते फानूस (Chandelier), दशकों पुरानी टेबल कुर्सीयां, अंग्रेजों के जमाने के टेबल लैंप, मुगलों के जमाने के पानदान/थूकदान, केरोसिन से चलने वाले पंखे , सभी प्रकार के तवे, ग्रामोफोन, वाल्व वाले वाले रेडियो, रोमर/एनिकर/फेबरलुवा/सैंडोज आदि की कलाई घड़ियां, पेंडुलम वाली बाबा आदम के जमाने की घड़ियां , धौंकनी वाले कैमरे (Bellow type Cameras) आदि।

अन्य संग्रहणीय वस्तुएं भी होती थीं: लकड़ी पर नक्काशी किए गए फ्रेम्स, सागवान,शीशम और माहोगनी के बने छोटे बड़े  बक्से, धातुओं की बनी हुई डिब्बियां, पुराने टाइप के पीतल और कांसे के बर्तन और सजावटी वस्तुएं जो आसानी से कम कीमत पर मिल जाती थीं ।

आज के कबाड़ीवालों की दुकानों पर उपरोक्त चीज़ें  नजर नहीं आती हैं। अब हर कबाड़ी की दुकान पर सिर्फ रद्दी पेपर, लोहा, प्लास्टिक और इलेक्ट्रॉनिक कचरा ही दिखाई पड़ता है। जो मजा पहले कबाड़ीवालों की दुकान में घुसने में आता था, वो अब जाता रहा। 

लेकिन अब इनके द्वारा किया गया कार्य पर्यावरण के संदर्भ में कहीं ज्यादा सार्थक है। जिस कुशलता से ये भंगार (Scrap) को अलग-अलग हिस्सों में बांटकर पुनर्प्रयोग और पुनर्चक्रण में सहायता करते हैं वो बहुत प्रशंसनीय है। 

बड़ी कंपनियां हों या सरकारें, इंसान को सिर्फ उपभोक्ता (Consumer) बना के छोड़ दिया गया है। नीतियां सिर्फ उपभोक्ता और उपभोग के लिए बनती हैं , इंसान के लिए नहीं। बड़ी कंपनियां बड़ी बेशर्मी से बताती हैं कि उनके पास कितने उपभोक्ता हैं। इंसान के बारे में कोई बात नहीं होती है, आप गौर करिएगा। किस्मत से ये कबाड़ीवाले नए सामान के उपभोग  पर कुछ अंकुश तो लगा पाते हैं, पुनर्प्रयोग और पुनर्चक्रण के कारण।

आज हमारा शहर इंदौर अगर साफ सफाई में लगातार चार साल से पहले नंबर पर आ रहा है तो उसमें सबसे ज्यादा सहयोग कचरा बीनने वाले लोगों और सफाई कर्मचारियों के साथ कबाड़ीवालों का भी है।

जन्माष्टमी के पावन पर्व के पहले इन धरासेवक जुगाड़ू कबाड़ियों को याद करना बड़ा सामयिक है । लीलाधर कृष्ण भगवान के अनुयायी  देशवासी जुगाड़ी-कबाड़ी तो होंगे ही! के एल सहगल के  मधुकर श्याम हमारे चोर... का आशीर्वाद इन पर बना रहे, दुनिया भी बनी रहेगी। 

सन 1932 में मास्टर फकीरुद्दीन का गाया ये भजन भी सुन लीजिए: मिट रही कौम तेरी, बांसुरी वाले आजा खास आप सभी के लिए कबाड़ के लाया हूं। 🙏🙏

अनूप जलोटा वाला वो काला एक बांसुरी वाला बस कुछ ऐसी जुगाड कर दे; इंसानों को सद्बुद्धि दे दे और मानव प्रजाति लुप्त होने से बच जाए।🙏🙏🙏

जन्माष्टमी  के अवसर पर दो बहुत पुराने तवे मीरा-भजन पर छांट के निकाले हैं, जो कबाड़ीवालों से  ही खरीदे गए हैं। पहला  मीरा-भजन है ज्यूथिका रॉय (1920-2014) का गाया हुआ। ये महात्मा गांधी और जवाहरलाल नेहरू की पसंदीदा भजन गायिका थीं। इन्होंने एक से बडकर एक भजन गाए हैं। तवे की तस्वीर नीचे दी गई है। भजन के बोल हैं: बादल देख झरी श्याम...। 



इसी भजन का एक दूसरा रूप भी है  वाणी जयराम की आवाज़ में। इसके बोलों में थोड़ा सा अंतर है: बादल देख डरी...। 

ज्यादातर मीरा-भजन महिला स्वर में होते हैं। लता मंगेशकर के गाए मीरा भजनों का तो कोई जवाब ही नहीं है। पर कभी-कभी पुरुषों द्वारा गाए मीरा-भजन भी कहर ढा देते हैं। दूसरा तवा भी मीरा भजन का है। इसे गाया है हरेन चैटर्जी ने। इस तवे का फोटो नीचे दिया है। गाने के बोल हैं: मेरे जन्म मरण के साथी। 


इन सभी भजनों को आराम से भक्ति भाव से सुनें, समझें और श्रीकृष्ण अनुकीर्तनम में लीन हो जाएं, चैन की बांसुरी बजाएं! 

पुनः जन्माष्टमी की अग्रिम हार्दिक बधाईयां! जय श्री कृष्णा!🤗🙏


पंकज खन्ना, इंदौर

9424810575

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