(27) सब छोड़के झगड़े दुनिया के अब वृन्दावन को जाना है: उस्ताद लच्छीराम।


पंकज खन्ना, इंदौर।

9424810575


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(27) ...वृन्दावन को जाना है: उस्ताद लच्छीराम!


क्षमा कीजिए बहुत लंबे समय से तवा संगीत का हफ्ता आप तक नहीं पहुंचा। लेकिन तवा संगीत के परिजनों जैसे रेल संगीतसाइकिल संगीतपक्षी संगीत,  तवा भाजी , CAT -IIM Mentor और SGSITS के बावा की तरफ से नियमित रूप से हफ्ता पहुंचा दिया गया है, हुजूर! अब तवा संगीत फिर रवा होगा आपके लिए भी और आने वाली पीढ़ियों के लिए भी।🙏
जी आज जन्माष्टमी है, राधे-राधे जरूर करेंगे। बांसुरी वाले की और वृन्दावन की भी बातें करेंगे। लेकिन पहले थोड़ा सुन तो लीजिए, पढ़ तो लीजिए! तवा संगीत बहुत महीनों बाद लौटा है और स्वर्गीय लच्छीरामजी को भी तो न्याय मिलना चाहिए, भले ही साठ साल बाद। तो फिर पर्दा हटाते हैं...

किशोरावस्था वाला एक ऐसा भी दौर था जब दिन भर बैठकर रेडियो इतना  सुनते रहते थे कि लगातार झुमरी तलैया से फरमाइश भेजने वाले श्रोताओं के नाम तक याद हो जाते थे! ऐसे गजब फुरसती थे तब! (अब फिर से फुरसती हो गए हैं। वो बुजुर्ग दोस्त जो अभी भी काम करने या  पैसा कमाने में लगे हुए हैं; हमारी फुर्सत को देखकर ताने मारते हैं।  जवाब में बस हम हंसते हुए गाने मार देते हैं!)
 
सन 1979 में पहली बार जब अनायास बीच में ही 'ढलती जाए रात' गाना रेडियो पर  सुना तो इसके संगीत में  बिल्कुल खो ही गए, हमेशा के लिए। लेकिन गाने के विवरण सुनने से रह गए। दिमाग में खलबली मच गई कि ये किसका संगीत हो सकता है। दोस्तों से पूछा। दोस्तों ने बहुत सारे संगीतकारों के नाम गिना दिए। लेकिन कोई भी इस बारे में निश्चित नहीं था।

एक महीना बीतने के  बाद एक दोस्त ने बताया कि उसके ताऊजी  ने उसे बताया कि इस गाने के संगीतकार का नाम लच्छीराम है। वो दोस्त कुछ ज्यादा ही दोस्त था। इसलिए किसी ने उसकी बात का विश्वास नहीं किया। सबको लगा आदतानुसार लच्छे मार रहा है। हमारे सबके  संगीत के 'अथाह ज्ञान भंडार' में लच्छीराम नाम का अस्तित्व ही नहीं था। लेकिन उस दोस्त का नाम हमेशा के लिए लच्छेराम  हो गया!

हमारे बचपन में आम आदमी के लिए गाना सुनना इतना आसान नहीं था। ग्रामोफोन, रिकॉर्ड प्लेयर या कैसेट प्लेयर सबके पास नहीं होते थे। बस रेडियो पर अपने गाने को सुनने का महीनों या सालों तक इंतज़ार कीजिए।

कई महीनों के इंतेज़ार के बाद यही गाना अंततः फिर बजा रात में, छायागीत में। उस समय के आकाशवाणी के जाने माने उद्घोषक क़ब्बन मिर्जा* ने उनकी गहरी और साफ उच्चारण वाली दमदार हिंदी में बताया कि इस गाने के संगीतकार हैं लच्छीराम और फिल्म का नाम है रज़िया सुल्तान। (ये 'रज़िया सुल्तान' नाम की संभवतः पहली फिल्म थी जो  सन 1961 में रिलीज हुई थी।)

तब पहली बार ये गाना पूरा सुना। और तबसे ये नाम और ये गाना दिमाग में गहरी पैठ कर गया है। 


  ('ढलती जाए रात' दिखाने के लिए काल्पनिक चित्र।)

सबसे पहले इस गाने के बोल पड़ लीजिए, हर शब्द को चबा-चबा कर। तसल्ली से।

ढलती जाए रात, कह ले दिल की बात।
शम्मा परवाने का न होगा फिर साथ।

मस्त नज़ारे, चाँद सितारें, रात के मेहमां हैं ये सारे।
उठ जाएगी शब की महफ़िल, नूर-ए-सहर के सुन के नक्कारे।

हो न हो दुबारा मुलाक़ात।
नींद के बस में खोई खोई, कुल दुनिया है सोयी सोयी।

ऐसे में भी जाग रहा है, हम तुम जैसा कोई कोई।
क्या हसीं है तारों की बारात।

जो भी निगाहें चार है करता, उसपे जमाना वार है करता।
राह-ए-वफ़ा का बन के राही, फिर भी तुम्हें दिल प्यार है करता।

बैठा ना हो ले के कोई घात।
ढलती जाए रात, कह ले दिल की बात।

शम्मा परवाने का न होगा फिर साथ।
ढलती जाए रात।

( कठिन शब्दों के मतलब। शब = शाम, नूर-ए-सहर = सुबह का प्रकाश, राह-ए-वफ़ा=वफ़ादारी का मार्ग)

अब इस गाने को देख भी लें, कई-कई बार, यू ट्यूब से: ढलती जाए रातफिल्म: रज़िया सुल्तान (1961)। गीतकार : आनंद बख्शी। गायक: रफ़ी। गायिका: आशा भोंसले। संगीतकार: लच्छीराम। पर्दे पर हीरो हीरोइन: पी जयराज और निरूपा रॉय।( सह कलाकार आगा और लीला मिश्रा भी हैं।)

हमारे हिसाब से ये गीत एक प्रकार से  लच्छीराम का विजिटिंग कार्ड है। इस एक गीत से ही पता चल जाता है कि वो किस स्तर के संगीतकार थे। आज उन्हीं की बात को आगे बढ़ाएंगे। लेकिन एक बार गीतकार आनंद बख्शी को याद करके उन्हें भी बराबर श्रेय  दिया जाए। उन्होंने इस से बेहतर कोई गीत लिखा हो तो जरूर बताइएगा। 🙏

इनका पूरा नाम था लच्छीराम तोमर या लच्छीराम तमर। अधिकांशतः उन्हें सिर्फ लच्छीराम नाम से ही याद किया जाता है।

इनका जन्म हिमाचल प्रदेश के कुठार रियासत (सोलन जिला) में सन 1914 में हुआ था। उन्होंने उस्ताद नूरे खां से संगीत की शिक्षा ली थी। बाद में उन्होंने दिल्ली में HMV  और रेडियो से जुड़कर ग़ज़ल, हिमाचली लोकगीत और फिल्मी धुनों में अपना योगदान दिया। सन 1945 में फिल्म "चंपा" के लिए संगीत निर्देशक के रूप में फिल्मी करियर की शुरुआत हुई।

लच्छीराम जी ने करीब 18–20 फ़िल्मों में संगीत दिया जिसमें कुछ फिल्में संगीत के कारण काफी प्रसिद्ध भी हुईं जैसे:  आरसी (1947), मधुबाला(1950),  रजिया सुल्तान (1961) और मैं सुहागन हूँ (1964)। उनका निधन सन 1966 में हो गया था।
 
उनके संगीत में ढले कुछ प्रमुख गीतों के लिंक नीचे हैं:

क्या हमसे पूछते हो... आरसी (1947) एस डी बातिश
तेरे बिना बालम आरसी (1947) ज़ीनत बेगम।
दुनिया है बेवफ़ाई की मधुबाला (1950) जी एम दुर्रानी।

फिल्म मैं सुहागन हूं (1964) के  कर्णप्रिय गीतों के लिंक नीचे दिए हैं। इन सभी हिट गीतों के गीतकार हैं भारत व्यास।

गोरी तोरे नैन नैनवा कजर बिन कारे कारे कारे। आशा भोसले और मोहम्मद रफ़ी। ( ये गीत प्रसिद्ध पीलू ठुमरी से प्रेरित है। इस ठुमरी को  इन्होंने भी गाया है:  शोभा गुर्टू, इकबाल बानो और  मेंहदी हसन।)

हम भी थे अनजान से आशा भोसले, सुधा मल्होत्रा।

और अंत में इसी फिल्म के इस गीत को जरूर सुनिए:

लता मंगेशकर ने सिर्फ यही एकमात्र गीत लच्छीराम के संगीत में गाया है। गजब गाया है और गजब ढाया है। लता मंगेशकर की आवाज़ इस गीत को एक दिव्य ऊंचाई पर ले जाती है। उनकी मंद कंपन की गायकी और धीमी तान गीत के दर्द को और सघन बना देती है। उनका सुर, दर्द और माधुर्य शब्दों के साथ इस कदर मेल खाता है कि हृदय के तार हिल जाते हैं, ज़ार ज़ार।

और यह रचना दर्शाती है लच्छीराम के संगीत की सौम्य शैली और स्वरों की सहजता। उनके संगीत की पहली विशेषता न्यूनतम वाद्य यंत्रों का उपयोग है। उन्होंने गानों में मुख्यतः तार-संगीत (सारंगी या दिलरुबा) और धीमा तबला/ढोलक ही उपयोग में लिया है। और उनकी दूसरी विशेषता ये है कि वो कभी संगीत को शब्दों पर हावी नहीं होने देते हैं। उनका संगीत शब्दों को आगे बढ़ाता है।

अब आते हैं लच्छीराम की गायकी पर! इस तथ्य को संगीत प्रेमी कम ही जानते हैं कि लच्छीराम उच्च स्तर के गायक भी थे। हमें ये बात इसलिए मालूम है क्योंकि हमारे पास उनके गाए दो कृष्ण भजनों का एक अनमोल तवा (78 RPM रिकॉर्ड) है। दुर्भाग्य से उनके गाए किसी भी भजन या गीत यू ट्यूब या अन्य  किसी सोर्स पर उपलब्ध नहीं हैं। 

इस तवे की पहली साइड पर उनका ये भजन है:  बजा के बांसरी मोहन हमें बुला लेना। रिकॉर्ड की हालत थोड़ी नाज़ुक है। रिकॉर्डिंग को यूट्यूब पर लगा तो दिया है लेकिन इसमें किसी विशेषज्ञ द्वारा साउंड एडिटिंग की बहुत जरूरत है।🙏

इस भजन के स्पष्ट/अस्पष्ट बोल कुछ इस प्रकार से हैं:

ना हम  पईसा ...बैठे।
बजा के बांसरी केशव हमें बुला लेना।
बजा के बांसरी मोहन हमें बुला लेना।
दिखा के झांकी दीवानी हमें बना देना।...

नजारा जमना तट का दिखाकर...
....हमें बुला लेना।
.......
बजा के बांसरी मोहन हमें बुला लेना।


तवे के दूसरी तरफ ये भजन है: 


भजन के बोल: 

दुख में सुमिरन सब करें
और सुख में करे न कोए।
जै सुख में सुमिरन करें 
तो दुख काहे को होए।

सब छोड़के झगड़े दुनिया के
अब वृन्दावन को जाना है।
वहां जाकर अपने किसना से
सब दिन मिल जाना है।
...    .... ...    

आकर दरस दिखाओ नंदलाला।
गरवा हमें लगाओ नंदलाला।...

कबीर के दोहों से ये गीत शुरू होता है। और फिर कृष्ण भजन का स्वरूप ले लेता है शास्त्रीय गायकी में। पूरा विश्वास है कि आपने भी उनकी गायकी की गहराई को इस भजन के माध्यम से अच्छे से समझा है। आप भी मानेंगे के उन्हें सिर्फ उस्ताद लच्छीराम के नाम से ही याद किया जाना चाहिए।

ये सुनने में सचमुच बहुत कर्णप्रिय लगता है: सब छोड़के झगड़े दुनिया के, अब वृन्दावन को जाना है।

आपको  लग रहा है हमें वैराग्य हो गया है और हम वृन्दावन को जा रहे हैं!? हो सकता है आज से पचास-साठ साल बाद जाएं! लेकिन अभी तो नहीं। नहीं, नहीं अभी नहीं!

मल्लिका पुखराज की गजल की एक लाइन याद आ रही है: खयाल-ए-ज़ोहद अभी कहां, अभी तो मैं जवान हूं! (खयाल-ए-ज़ोहद = वैराग्य भाव)

अभी तो बहुत तवाबाजी और तवाभाजी करनी है:)

आज जन्माष्टमी के शुभ अवसर पर आपको उस्ताद लच्छीराम के कृष्ण भजन सुनाकर अपार खुशी हो रही है। आज तो पूरा जग ही कृष्णमय हो गया है। लच्छीराम तो किसना हैं ही, आज तू भी किसना है, मैं भी किसना हूं!

आप सभी को तवा संगीतरेल संगीतसाइकिल संगीतपक्षी संगीत,  तवा भाजीCAT -IIM Mentor और SGSITS के बावा की ओर से जन्माष्टमी की हार्दिक शुभकामनाएं।

श्रीकृष्ण आपकी बुद्धि, वाणी और मन को हमेशा माधुर्य से भरकर रखें। आपके जीवन की राह में हमेशा बाँसुरी की तान और मोरपंख की छाँव  बनी रहे। 🌿🎶🦚🙏


पंकज खन्ना
9424810575

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*क़ब्बन मिर्जा

सन 1983 में दूसरी *रज़िया सुल्तान* रिलीज हुई जिसके हीरो थे धर्मेंद्र और हीरोइन थीं हेमा मालिनी।संगीतकार  थे खैयाम। 

इस फिल्म में इन्हीं रेडियो उद्घोषक क़ब्बन मिर्जा ने ये दो गीत गाए हैं। एक बार आप भी इनकी सुरीली, रोबीली और दमदार आवाज़ सुनिए। आप समझ जाएंगे क्यों हम इनकी आवाज़ के आज भी दीवाने हैं!

आई जंजीर की झंकार। गीतकार: जाँ निसार अख्तर।
तेरा हिज़्र मेरा नसीब है! गीतकार: निदा फ़ाज़ली।
(हिज़्र मतलब वियोग, बिछोह।)

किस्मत से हमने उनके श्रीमुख से कई बार रात के दस बजे छाया गीत में उनकी आवाज में ये बहुत बार सुना: “छाया गीत सुनने वालों को कब्बन मिर्ज़ा का आदाब!"

पूरे 46 साल बीतने के बाद, ये सोचकर कि शायद हमारी बात भी उन तक, यहां नहीं तो वहां, जरूर पहुंचेगी; आज हम भी  बड़े अदब के साथ ये कहना चाहते हैं: “छाया गीत सुनाने वाले कब्बन मिर्ज़ा को प्यार भरा आदाब"।🙏🙏🙏


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