(23) सीताराम सटक गए, थाली लोटा पटक गए। ।

(23) सीताराम सटक गए, थाली लोटा पटक गए। 

पंकज खन्ना, इंदौर।

9424810575

(पोस्टेड: 3/6/2023)

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ग्रामोफोन और ग्रामोफोन के भोंपू का जमाना बीत गया।  ट्रक, बस, कार, जीप, सुअर-छाप टेंपो, मोटरसाइकिल, ऑटो रिक्शा और दूध वालों की साइकिल आदि में लगने वाला रमणीय, स्मरणीय भोंपू भी अब अप्रचलित हो चुका है। सांडा  भाई की  झोपड़ी या गुमटी जिससे पांडे का तेल , सांडे का तेल भोंपू की आवाज पर बेचा जाता था, वो भी नहीं रही, उनका भोंपू भी नही रहा। 

सरकारी मुलाजिमों द्वारा तांगों और ऑटो रिक्शा से  मुनादी, ढोल, ढिंढोरा पीटना और भोंपू पर चिल्लाना  "सुनो, सुनो, सुनो...." या   "नागरिक बंधुओं...." भी बंद हो चुका है।

वक्त आ गया है जब  ग्रामोफोन के भोंपू के इस गरीब लेकिन करीबी रिश्तेदार को भी दिल से याद कर लिया जाए। कभी ये हमारी जिंदगी का अभिन्न अंग था।



उपरोक्त सभी वाहनों और सांडा भाई को बहुत अच्छे से याद किया जाएगा आने वाले समय में। चुनावी भोंपू और HPCL के भोंपूओं का भी आगे बखान किया जाएगा। लेकिन आज सिर्फ दूधवालों (दूधियों) के भोंपू को याद करेंगे।

साठ़-सत्तर के दशक में सारे दूधिए साइकिल से ही दूध बांटते थे। इनकी साइकिल की बनावट, सजावट भी बहुत अलग होती थी। डबल डंडा, डबल चिमटा, साइकिल की बड़ी सी कड़क सीट जिसके  स्प्रिंग सीट से बड़े होते थे। दो  डंडों के बीच में बने V शेप में समलंब (Trapezium) के आकार का एल्यूमीनियम का बॉक्स, बिल आदि रखने के लिए। 

आगे मजबूत  बगैर बैटरी की लाइट और पीछे के पहिए से चिपका डायनामो जो रोशनी तो पैदा करता था लेकिन साइकिल चलाने को बहुत भारी कर देता था।

इनकी साइकिल की अन्य विशेषताएं होती थीं: विशेष रूप से बने पुख्ता स्टैंड और मजबूत केरियर जिसके आसपास दोनों तरफ बड़े-बड़े दूध के डिब्बे लटके रहते थे। आगे हैंडल से भी दो छोटे डिब्बे लटके रहते थे, रंग बिरंगे फुंदे अलग से। पूरी तरह से तो नहीं, पर कुछ-कुछ ऐसी होती थी दूधिया साइकिलें।




बस भोंपू और एल्यूमीनियम बॉक्स  की कमी है इन फोटो में। आज के साइकिलिस्ट छोरे तो शायद दो मिनट भी न बैठ सकें ऐसी साइकिलों पर! क्या कहें इन छोरों को? दूधिए से मिलता जुलता शब्द याद आ रहा है! :) बुरा मत मानना जवान छोरों, आप और हम एक ही कैटेगरी के हैं;)

लगभग सभी दूधिए धोती-कुर्ते  और मूंछों में ही  निवास करते  थे। कुछ कुर्ते पजामे भी पहनते थे। बचपन में कभी पेंट-शर्ट धारी  या मुछ-मुंडा दूधिया नहीं देखा। सभी दूधवालों की साइकिलों पर भांति-भांति के तांबे,पीतल, कांसे, लोहे आदि के भोंपू  सजे रहते थे। सभी भोंपुओं की आवाजें अलग होती थीं। संगीत अलग होता था। तांबे के भोंपुओ का कंपन अलग ही लेवल का होता था। इन सभी दूधवालों के भोंपुओ की अलग-अलग Signature Tune ( पहचान धुन या संकेत धुन) होती थी जिसे पहचानकर लोग बाहर आकर अपने-अपने दूधिए से दूध ले लेते थे।

ग्राम पिपलिया हाना के बांके गबरू जवान  राधेश्याम पारसी मोहल्ले में भोंपू पर उनकी सिग्नेचर ट्यून  बजाते हुए दूध देने आते थे। राधेश्याम भोंपू बजाने में बड़े एक्सपर्ट थे। भोंपू पर अलग-अलग कर्णप्रिय धुन निकाल  सकते थे। 

मोहल्ले में एक भंगेड़ी थे। नाम था सीताराम। काम था बाल्टी भर भांग पी के मटकना। अख्खा दिन। ऐसे ही लोगों को देखकर शायद बाद में ये डीजे  कावड़िया गीत बनाया गया होगा: नीलकंठ पे चढ़ के पी गया एक बाल्टी भांग। भोला न्यूं मटके, भोला न्यूं मटके। 

राधेश्याम भंगेड़ी सीताराम के घर पहुंचकर तांबे के भोंपू पर कुछ अलग ही उच्च कोटि की सरगम छेड़ते थे। अधेड़ सीताराम की जवान बीवी टुईयाँ भोंपू की सरगम  सुन-सुनकर  दूध लेते-लेते  माचो (Macho) राधे को दिल दे बैठी। 

और फिर तो राधे के भोंपू की धुन और मधुर होती गई। टुईयाँ की हसीन हंसी और भी दिलकश हो गई। राधे की मूंछों की ऐंठन बड़ने लगी। दूध लेन-देन के साथ नैन मटक्का तो होना ही था। 

दूध के साथ-साथ  चिट्ठियों का  आदान-प्रदान भी शुरू हो गया। राधे-टुईयाँ को लगता था की उन्हें कोई नहीं देख रहा। पर मोहल्ले के हर बच्चे को मालूम था कि राधे-टुईयाँ के दिल में मोहब्बत का भोंपू बहुत जोर से बज रहा था। भंगेड़ी सीताराम को देखकर बच्चे वो प्यारा सा 'पॉम पॉम' गाना गाने लगते थे: बाबू समझो इशारे! सीताराम कभी समझे ही नहीं!

सन 1979 की जनवरी की अमावस वाली एक काली पगली ठंडी रात में राधेश्याम राधे-राधे भजते, बगैर भोंपू बजाए, बगैर किवड़िया खटकाए, खुली खिड़की का परदा हटाकर, सुहाने सपने संजोए बैठी टुईयाँ को  धीरे से उठाकर, कलेजे से सटाकर, डबल डंडे की दूधिया साइकिल पर  भगा ले गया। मोहल्ले में हल्ला मच गया।

उधर कुछ महीने पहले ही 1978 में  फिल्म चौकी नंबर 11 का वीके सोबती द्वारा लिखा गया, सोनिक ओमी के संगीत में शोभा गुर्टू द्वारा गाया गया 'अश्लील' गाना- कहीं हो न मोहल्ले में हल्ला रिलीज हुआ ही था और इधर टुईयाँ फुर्र हो गई। हल्ला तो मचना ही था। (इस गाने* से टुईयाँ के दिल का दर्द आप अच्छे से समझ सकते है। गाना कोर्स में है। अच्छे से सुनें और समझें! समझे?)

मोहल्ले के अन्य दूधवाले और ऑटोवाले सीताराम के घर के आगे से जब भी निकलते राधे के सुर में भोंपू बजा देते थे। भोंपू विहीन मनुष्य यही गाना गाते हुए निकलते थे: कहीं हो न मोहल्ले में हल्ला। गाते हुए इसके शब्द भी बदल देते थे। छैयां शब्द को टुईयाँ से बदलकर  गाते थे: खिड़की के परदे पर देखूं मेरी टूइयां! क्रूर मोहल्लेवासियों ने  सीताराम को नमस्ते बोलना बंद कर दिया। कहने लगे: राधे राधे! 

राधेश्याम की नईं नवेली दुल्हनिया टुईयाँ ग्राम पिपलिया हाना में अमावस की  घनी रात में साइकिल से लैंड कर गईं। वहां भी बावेला मच गया। राधेश्याम की पहली पत्नी धापूबाई पहले से ही भरी बैठी थी कमर बांधे। वो ग्राम दूधिया में दगड़ू पेलवान के घर भाग गई। दगड़ू की पहली बीवी ग्यारसीबाई क्या करती!? मौका ताड़कर सीताराम-सीताराम भजते हुए सीताराम की अर्धांगिनी, सुहागिनी हो गई। बस वहीं वेकेंसी बची थी! 

कुछ महीनो तक सब ठीक  रहा। पर ग्यारसीबाई भंगेडी सीताराम से ज्यादा खुश नहीं थी। धीरे-धीरे उस पर हावी होने लगी। ग्यारसी ने माचो राधेश्याम का पिछला रिकॉर्ड देख समझकर उसे फिर से रख लिया। फिर क्या था! मौसम बदलने लगा, सावन ऋतु आ गई, माहोल में भोंपिया सुर छाने लगे, राधे-राधे के स्वर गूंजने लगे। ग्यारसी पर भी राधे का नशा छाने लगा। नैन मटक्का पार्ट-2  परवान चढ़ने लगा। जल्दी ही शरद ऋतु भी आ गई। राधे राधे! 

टुईयाँ के काटे सीताराम इस बार पहले ही खतरा भांप गए थे। इसके पहले कि इतिहास अपने आप को दोहराता और ग्यारसी भागती; सन 1980 की जनवरी की कुछ  पिछले साल जैसी  ही एक  ठंडी पगली काली अमावस की रात में सीतारामजी कुछ ज्यादा ही भांग गटक गए।

पहले तो मस्त मटक लिए फिर बाल्टी भर भांग के नशे में भोले भटक गए। राधे, टुईयाँ , ग्यारसी उनकी नजरों में खटक गए। भांग के नशे में काफी सोच विचार के बाद पंखे से लटक गए। पंखा टूट गया, रस्सी में अटक गए। हाथ पैर चटक गए। होश आया तो रस्सी को झटक दिए, पास पड़े वीरान थाली और लोटा पटक दिए। सब कुछ छोड़ नर्मदा किनारे सटक गए। आश्रम खोल लिया, बम-बम भोले की भक्ति में लीन हो गए। वक्त ने पैंतरा बदला और कुछ ही सालों में वो पहुंचे हुए बाबा कहलाने लगे! सीताराम सीताराम!!🙏

सीतारामजी के पलायन के बाद  पारसी मोहल्ले में ये मुहावरा प्रचलन में आ गया: सीताराम सटक गए, थाली लोटा पटक गए। व्हाट्सएप ग्रुप के फूफाओं के ग्रुप छोड़ने पर आप भी ये मुहावरा प्रयोग कर सकते हैं:)

उधर ग्यारसी भी राधे-राधे भजते हुए ग्राम पिपलिया हाना में राधे में लीन हो गई, टुईयाँ की सौतन बन गई। दोनों सौतन बहनें राधे को छोड़ने को राजी नहीं और दिन भर झगड़ती रहती थीं। राधे राधे!

उनकी कहानी समझने के लिए आप ये गाना सुनें:  सौकण-सौकणी।** (पंजाबी में सौतन को सौकण/सौकन कहते हैं।) 

जाते-जाते आप हमारी भोंपू वाली साइकिल और झोले वाली पुरानी साइकिल भी देख लें! बस यूं ही!




तवा- संगीत सुनना, सुनाना, पढ़ना-लिखना-पढ़ाना, पीके खाना और साइकिल चलाना। वाह! मज्जानी लाइफ!🤗🙏


पंकज खन्ना, इंदौर।

9424810575


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*मेरी उमर के नौजवानों आपको तो याद ही होगा कैसे ये गाना कहीं हो न मोहल्ले में हल्ला प्रसिद्ध हुआ था और इसे अश्लील और फूहड़ करार दिया गया था। पहले इस गाने के बोल पढ़ लेते हैं:

कहीं हो ना मोहल्ले में हल्ला किवड़िया ना खटकाना।
कहीं हो ना मोहल्ले में हल्ला किवड़िया ना खटकाना।
दरवज्जे पे ताला है लल्ला, पिछवाड़े तईं आ जाना।
दरवज्जे पे ताला है लल्ला, पिछवाड़े तईं आ जाना।
किवड़िया ना खटकाना।

जब से बियाही तब से न आयी एक भी रात सुहानी।
जब से बियाही तब से न आयी एक भी रात सुहानी।
पीयू गए परदेस कमाने, पीयू गए परदेस कमाने
सूनी छोड़ जवानी।
रोये रात रात रोये रात रात चुनरी का पल्ला।
घूँघटवा उठ्ठा जाना।
रोये रात रात रोये रात रात चुनरी का पल्ला।
घूँघटवा उठ्ठा जाना। किवड़िया ना खटकाना।

पिछली रात पडोसी के घर लाल जले जब बत्ती।
पिछली रात पडोसी के घर लाल जले जब बत्ती।
खिड़की के परदे पर देखूँ ।देखूं मेरी छैयां 
हो देखूं मेरी छैयां।
खिड़की के परदे पर देखूँ छाया ये दो मिलती।
जिया करता है, जिया करता है।
ज़ोर से दूं चिल्ला बचाना मुझे बच्चाना।
जिया करता है ज़ोर से दूं चिल्ला बचाना मुझे बच्चाना।
कहीं हो ना मोहल्ले में हल्ला किवड़िया न खटकाना।
किवड़िया न खटकाना।

सावन सूखा, फागुन फीका होली ना दिवाली।
सावन सूखा, फागुन फीका होली ना दिवाली।
सखियों के घर कागा बोले कागा कागा ।
सखियों के घर कागा बोले यहाँ पे बिल्ली काली।
मैं तो फूंक फूंक मैं तो फूंक फूंक हारी रे चुल्हा।
संवारूँ कब तक खाना।
मैं तो फूंक फूंक हारी रे चुल्हा। संवारूँ कब तक खाना।
किवड़िया  ना खटकाना।

आगे ताला पीछे ताला बंद सभी दरवाजे।
आगे ताला पीछे ताला बंद सभी दरवाजे।
चाभी मेरे पास नहीं है पायलिया जब बाजे।
पायलिया जब बाजे रामा पायलिया बाजे।
चाभी मेरे पास नहीं है पायलिया जब बाजे।

जिस खिड़की का, जिस खिड़की का पर्दा लगे खुल्ला।
उसी से तुम आ जाना।
जिस खिड़की का पर्दा लगे खुल्ला
उसी से तुम आ जाना।
कहीं हो ना मोहल्ले में हल्ला किवड़िया न खटकाना।
दरवज्जे पे ताला है लल्ला पिछवाडे तहिं आ जाना।
किवड़िया न खटकाना।

शोभा गुर्टू जैसी बड़ी शास्त्रीय गायिका ने इसे गाया था और खूब गाया था। लेकिन उनकी भी इस गाने के चयन के लिए काफी आलोचना हुई थी। बेगम अख्तर के बाद शोभा गुर्टू ने ही सबसे अच्छी ठुमरीयां गाई हैं।  उनकी कुछ बेहतरीन रचनाओं के लिंक नीचे दिए हैं। सुनने का शौक फरमाएं:

सैंया रूठ गए मैं मनाती रही

नथनिया ने हाए राम बड़ा दुख दीना। (फिल्म सज्जो रानी)

याद पिया की आई (प्रहार)

बेस्ट ऑफ़ शोभा गुर्टू (इसमें कजरी, चैती, ठुमरी और होरी है।)


अब थोड़ी सी बात कहीं हो न मोहल्ले में हल्ला के संगीतकार सोनिक ओमी की भी बात हो जाए। ये चाचा भतीजा संगीतकार जोड़ी भी कमाल की है। चाचा थे नेत्रहीन गायक संगीतकार, म्यूजिक अरेंजर मास्टर सोनीक यानी मनोहरलाल सोनिक और भतीजे थे ओमप्रकाश सोनिक। 

विविध भारती पर 'उजाले उनकी यादों' के प्रोग्राम में सोनीक ओमी जोड़ी के बारे में बहुत अच्छा बताया गया है। इनके संघर्ष की कहानी बहुत प्रेरणादायक है। सोनिक ओमी द्वारा आकाशवाणी पर दिया गया विशेष जयमाला प्रोग्राम  और रेडियो सिलोन द्वारा इन पर बनाया प्रोग्राम भी आप यहीं से क्लिक करके सुन सकते हैं।

** पंजाबी लोक संगीत में 'सौकन-सौकनी' पर पारंपरिक रूप से बहुत अच्छे गीत  और गिद्दे हैं। आप चाहें तो सौकन-सौकनी का ओरिजनल वीडियो भी  यहीं से देख लें।🤗🙏

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