(15) इंशा अल्लाह खान (1756-1817) की गज़ल 'कमर बांधे'

तवा संगीत:(15) इंशा अल्लाह खां (1756-1817) की गज़ल 

 पंकज खन्ना, इंदौर।


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पारसी अंकल से बच्चे कभी-कभी पूछते थे की ये 'नाकदार' गानों के  'बोरिंग' तवे (रिकॉर्ड्स) आ कहां से  जाते हैं!? वो हंसकर बताते थे कि ज्यादातर तवे तो बंबई से लाते थे। कुछ महारानी रोड स्थित किसी 'रेडियो एंड वॉच कंपनी' से खरीदते थे, और कुछ Cheap Jack and Company से।

आज भी अगर आप महारानी रोड इंदौर का चक्कर लगा आएं तो पाएंगे कि बहुत सारी दुकानों के नाम में  'रेडियो एंड वॉच कंपनी' लिखा है। ये बात दीगर है कि अब ये दुकानें न तो रेडियो बेचती हैं और न ही घड़ियां! ये सभी दुकानें कभी तवे भी बेचती थीं पर अब इन दुकानों में किसी भी प्रकार के तवों का नामो-निशान भी नहीं है।

Cheap Jack and Company (Antique Dealer) आज भी राजबाड़े के पास  मौजूद है। इस दुकान का  फोटो नीचे लगाया है।

Cheap Jack and Company की स्थापना सन 1939 में श्री घीसालाल जी जैन (1915-2000) द्वारा की गई थी। 

पारसी अंकल सुनाया करते थे कि  1947 से पहले उनकी माताजी और  माताजी की अंग्रेज सहेलियां अंग्रेजों की दो घोड़ों वाली बग्घी में या ऑस्टिन-7 ( Baby Austin) टाइप की मोटर गाड़ियों में बैठकर शहर में अग्यारी, मंदिरों, चर्चों और  बिस्को पार्क को देखने के बाद  राजबाड़ा के पास Cheap Jack and Company पर भी पहुंच जाती थीं। यहां से पेंटिंग, फानूस, कैमरे, घड़ियां, रंग बिरंगे घड़े आदि खरीदा/बेचा करती थीं। 

Cheap Jack and Company को पहली बार सन 1986 में देखा। दुकान में घुसते ही लगा की जैसे किसी छोटे से म्यूजियम में आ गए हैं।छोटी सी दुकान में दुनिया बसी हुई थी---बड़े बड़े फानूस( Chandelier), राजों महाराजों की आदमकद  पेंटिंग्स, पुराने सिक्के, डाक टिकट, मूर्तियां, घड़ियां, कैमरे, पुरानी किताबें, पीकदान, पानदान, पीतल , तांबे और कांसे की कलाकृतियां, नक्काशी वाली गोल टेबल और उस पे रखा ग्रामोफोन, पुराने रेडियो और ढेर सारे तवे ही तवे कवर के साथ।

सबसे पहले तो हमने उनसे अंग्रेजों और पारसियों की ही बातें की। उन्होंने पारसी अंकल की कही सभी बातों का बहुत  खुश होकर सत्यापन किया। बस एक ही छोटा सा अंतर था। इनके अनुसार  बेबी ऑस्टिन तो जरूर आती थी पर बग्घी सिर्फ एक घोड़े की आती थी! 


घीसालालजी भी पहले अन्य कबाड़ीवालों के समान ठेले पर ही व्यापार करते थे। उनका कुछ अंग्रेज अधिकारियों के साथ कबाड़ का व्यवहार  भी होता था। ऐसे ही किसी अंग्रेज अधिकारी ने उनकी ईमानदारी और कर्मठता को देखकर उन्हें एक सेकंड हैंड एंटीक चीजों के लिए दुकान खोलने का सुझाव  दिया। 

इन्होंने फिरंगी के सुझाव पर अमल किया और शुरू कर दी पूरे मध्य प्रदेश की पहली एंटीक शॉप: Cheap Jack and Company. आज भी इसी नाम से जानी जाती है।


वैसे तो बहुत से रिकॉर्ड अलमारी से झांकते दिखाई दे रहे हैं जो उनसे खरीदे थे। उनसे खरीदा आज एक ऐसा गीत सुनते हैं जो हमें बहुत कर्णप्रिय लगता है। ये मोहम्मद रफी का गैर फिल्मी गीत है, जो बहुत कम लोगों द्वारा सुना गया है। इस रिकॉर्ड की फोटो नीचे दी है।

ये गीत सन 1950 के आसपास रिकॉर्ड किया हुआ है।
इस गाने में संगीत दिया है नेत्रहीन संगीतकार मनोहरलाल सोनीक यानी मास्टर सोनिक ने। ये गायक-संगीतकार  ओमप्रकाश सोनिक के चाचा थे। दोनों ने मिलकर  बाद में सोनिक-ओमी नाम से बहुत सारी पिक्चरों में बहुत अच्छा संगीत दिया है। खास करके 60 के दशक में।

मोहम्मद रफी के बारे में क्या कहें!? शायद ही इनसे बड़ा गायक कोई आज तक हुआ है। और जिस गाने की हम बात कर रहे हैं उसको तो उनके अलावा कोई और गा भी नहीं सकता है। इतनी आसानी से रफी ने गीत के कठिन शब्दों को मिठास से गाया है। ये सिर्फ वो ही कर सकते हैं।इसमें मास्टर सोनिक का  संगीत भी उच्च श्रेणी का है। उनकी धुन में सादगी भी है और माधुर्य भी।

बेचारे पुराने कवि और गीतकार ! इनका तो कोई नाम लेने वाला भी नहीं था। कितने ही गीत ऐसे हुए हैं जो फिल्मी दुनिया शुरू होने से बहुत पहले रचे गए थे पर उनको फिल्मी गीतकारों ने  चोरी कर लिया और दर्शकों/ श्रोताओं को अपने नाम से पेश कर दिया। 

अब उपरोक्त गीत को ही ले लीजिए। इस रिकॉर्ड में गीतकार का नाम भी नहीं लिखा गया है। अच्छा ये है कि नकली गीतकार का नाम भी नहीं लिखा गया है। 

उपरोक्त गीत को लिखा है इंशा अल्लाह खां (1756-1817) ने 210 साल पहले।   इन्हें सिर्फ इंशा के नाम से भी जाना जाता है। बहुत शानदार,जानदार, दमदार गजल लिखी है ।पहले गजल के बोल पढ़ लीजिए और फिर चाहें तो गाना भी सुन लीजिए:👇

कमर बांधे हुए  चलने...(मो. रफी गैर फिल्मी) एमएल सोनिक 


कमर बांधे हुए चलने को याँ सब यार बैठे हैं ।
बहोत आगे गए, बाक़ी जो हैं तैयार बैठे हैं ।

न छेड़ ए निक़हत-ए-बाद-ए-बहारी, राह लग अपनी ।
तुझे अटखेलियाँ सूझी हैं, हम बेज़ार बैठे हैं ।।

तसव्वुर अर्श पर है और सर है पा-ए-साक़ी पर ।
ग़र्ज़ कुछ और धुन में इस घड़ी मय-ख़्वार  बैठे हैं ।।

बसाने नक़्शपाए रहरवाँ कू-ए-तमन्ना में ।
नहीं उठने की ताक़त, क्या करें? लाचार बैठे हैं ।।

यह अपनी चाल है उफ़तादगी से इन दिनों पहरों तक ।
नज़र आया जहां पर साया-ए-दीवार बैठे हैं ।।

कहाँ सब्र-ओ-तहम्मुल ? आह! नंगोंनाम क्या शै है ।
मियाँ! रो-पीटकर इन सबको हम यकबार बैठे हैं ।।

नजीबों का अजब कुछ हाल है इस दौर में यारो ।
जहाँ पूछो यही कहते हैं, "हम बेकार बैठे हैं" ।।

भला गर्दिश फ़लक की चैन देती है किसे इंशा ।
ग़़नीमत है कि हम सूरत यहाँ दो-चार बैठे हैं ।।

इंशा अल्ला खाँ 'इंशा'  हिंदी साहित्यकार और उर्दू कवि थे। वे दिल्ली तथा लखनऊ के दरबारों में शायरी करते थे। उन्होने 'रानी केतकी की कहानी' नामक कथाग्रन्थ की रचना भी की। यह उर्दू लिपि में लिखी गयी थी। कुछ साहित्यकार  इसे हिन्दी की पहली कहानी मानते हैं। 

इंशा बहुत ज्ञानी और बुद्धिमान थे। ऐसी कोई बात न थी जिसे वो शेर में न कह सकते थे पर वो ज्यादातर मसखरेपन में ही लगे रहे, जो उस समय के लोगों को नागवार गुजरता था। इंशा मुशायरे में जाते तो एक तरफ़ किसी शायर की तारीफ़ करते और दूसरी  तरफ़ बेइज्जती भी कर  देते। बहुतों का दिल दुखाया।

उस जमाने के दूसरे मशहूर शायर ग़ुलाम हमदानी मुसहफ़ी ने भी इनसे चोट खाई थी। इन दोनों की अदावत बहुत प्रसिद्ध रही है। उन्होंने इंशा के बारे में ये कहा था - वल्लाह कि शायर नहीं है तू ,भाँड है भड़वे!

लखनऊ के नवाब का  भी धीरे-धीरे इंशा से अलगाव होना शुरू हो गया। इसका खामियाजा इंशा को भुगतना पड़ा और वो निर्धन होते चले गए। उन्होंने अपनी मनस्थिति को ही ऊपर वाली गजल में लिखा है और बहुत खूब लिखा है।

इसे साधारण बोलचाल की हिंदी में अनुवाद करने की कोशिश की है, क्योंकि नेट पर अनुवाद नहीं मिला इसलिए! कुछ गलतियां तो जरूर होंगी , कृपया नज़रअंदाज कर देना!!🙏 

कमर कसके दोस्त लोग यहां तैयार  बैठे हैं।
तेज चलने वाले निकल लिए, बाकी तैयार बैठे हैं।।

ए बसंत की सुगंधित हवा, चल निकल ले तू।
तुझे मस्ती सूझ रही है, हम हैरान परेशान बैठे  हैं।।

ध्यान तो आसमान का है पर  सिर साकी के पांव में है।
उद्देश्य तो कुछ और था पर  मयखाने में  टुन्न बैठे हैं।।

चाह थी पदचिन्ह छोड़ने की, इच्छाओं के गलियारे में।
पर  अब उठने की ताकत नहीं , बस लाचार बैठे हैं।।

इतनी दुर्बलता है कि इन दिनों   कई घंटों तक।
जहां दिखे वहीं दीवार के साए में बैठे हैं।।

संजीदगी का धैर्य कहां है, नंगाई भी क्या चीज है, मियां
इन बातों पर रो पीटकर  हम बहुत मुश्किल से  बैठे हैं।

भले लोगों का भी कुछ अजीब हाल है इस जमाने में।
जहाँ पूछो यही कहते हैं, "हम बेकार बैठे हैं" ।।
 
आसमान की ग़रीबी भला किसे चैन देती है इंशा।
ये तो अच्छा है हमारे समान यहां दो चार बैठे हैं ।।

वो खुद संजीदा विषयों को भी मसखरी में लिया करते थे। इनकी गज़ल को भी अगर मसखरी में लिया जाए तो सिर्फ एक वाक्य में पूरी गजल कह सकते हैं: 'ए जिंदगी परे हठ, याँ हम भरे बैठे हैं!'🙏🙏

पंकज खन्ना, इंदौर।
9424810575


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