मेरे हज़रत ने मदीने में मनाई होली
पंकज खन्ना, इंदौर।
9424810575
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(1) मुगल काल (1526-1857) में अकबर/ हुमायूँ/जहाँगीर/शाहजहाँ/बहादुरशाह ज़फर होली के आगमन से बहुत पहले ही होली की तैयारियाँ शुरू करवा देते थे। सल्तनत के दिनों में महफि़ल-ए-होली का जश्न कई दिनों तक चलता था । ये जश्न ईदे गुलाबी और आब-ए-पाशी नाम से भी जाना जाता था। कोई भी जाति, वर्ग और धर्म का गरीब से गरीब व्यक्ति भी बादशाह पर रंग फेंक सकता था।
क्यों मोपे मारी रंग की पिचकारी,
देख कुंवरजी दूंगी गारी।
भाज सकूं मैं कैसे, मोसो भाजो नहीं जात,
थांडे अब देखूं मैं बाको कौन जो सम्मुख आत।
बहुत दिनन में हाथ लगे हो कैसे जाने देऊं,
आज मैं फगवा ता सौ कान्हा फेंटा पकड़ कर लेऊं।
शोख रंग ऐसी ढीठ लंगर से कौन खेले होरी,
मुख बंदे और हाथ मरोरे करके वह बरजोरी।
(3) सात सौ साल से भी पहले अमीर ख़ुसरो की होली पर लिखी यह क़व्वाली आज भी काफ़ी लोकप्रिय है-
आज रंग है, हे मां रंग है री
मोरे महबूब के घर रंग है री
(4) बाबा बुल्लेशाह ने लिखा है-
होरी खेलूंगी, कह बिसमिल्लाह,नाम नबी की रतन चढ़ी, बूंद पड़ी अल्लाह अल्लाह.
दलेर मेंहदी की आवाज में इसे सुन लीजिए। एक सिख दिल से होली के लिए गा रहा है बिस्मिल्लाह-बिस्मिल्लाह कहते हुए! वाह! वाह!!
(5) भगवान कृष्ण के भक्त इब्राहिम रसख़ान (1548-1603) ने होली को कृष्ण से जोड़ते हुए बहुत ही ख़ूबसूरती से लिखा है-
आज होरी रे मोहन होरी,
काल हमारे आंगन गारी दई आयो, सो कोरी,
अब के दूर बैठे मैया धिंग, निकासो कुंज बिहारी
(6) अगर अकबर ने गंगा जमुनी तहज़ीब की शुरुआत की तो अवध के नवाबों ने इसे अलग ऊंचाई तक पहुंचाया। नवाब सभी त्योहार अपने-अपने अंदाज़ में मनाते थे। मीर तक़ी मीर (1723-1810) ने लिखा है-
होली खेला आसिफ़-उद-दौला वज़ीर,
रंग सोहबत से अजब हैं ख़ुर्द-ओ-पीर
(7) अवध के ही नवाब वाजिद अली शाह ने अपनी बहुत प्रसिद्ध ठुमरी में लिखा है:मोरे कान्हा जो आए पलट के,अबके होली मैं खेलूंगी डट के।
इस ठुमरी पर फिल्म सरदारी बेगम में एक गीत/कृष्ण भजन है जिसमें वनराज भाटिया का बहुत कर्णप्रीय संगीत है और गाया है आशा भोंसले ने। असल गीत तो लिखा वालिद अली शाह ने है। जावेद अख्तर ने कुछ सुंदर परिवर्तन किए हैं बोलों में। इसे सुनने के लिए यहां क्लिक करें।
मेरे कान्हा जो आये पलट के,
आज होली मैं खेलूंगी डट के।
अपने तन पे गुलाल लगा के,
उनके पीछे मैं चुपके से जाके,
रंग दूंगी उन्हें मैं लिपट के,
आज होली मैं खेलूंगी डट के।
की उन्हों अगर जोरा-जोरी,
जोरा-जोरी,जोरा-जोरी,
छिन्नी पिचकारी बाइयाँ मरोरी,
गरियाँ मैंने रखी है रट के,
आज होली मैं खेलूंगी डट के।
इसी कृष्ण भजन को पूनम दीदी की आवाज में सुनने के लिए यहां क्लिक करें। और मालिनी अवस्थी की आवाज़ में सुनने के लिए यहां क्लिक करें।
वालिद अली शाह द्वारा लिखित बाबुल मोरा नैहर छूटो ही जाय पर हम पहले ही चर्चा कर चुके हैं।
(8) नज्मों के उस्ताद और मशहूर कवि/शायर नज़ीर अकबराबादी (1735-1830) के अलावा किसी और ने होली को इतने ख़ूबसूरत तरीक़े से शब्दों में पेश किया है क्या? शायद नहीं। आप खुद ही फैसला करें।
जब फागुन रंग झमकते हों तब देख बहारें होली की,
और दफ़ के शोर खड़कते हों तब देख बहारें होली की ।
इस गीत में कुछ गालियां भी लिखी गईं हैं। होली गीतों में शायद फूहड़ता की शुरुआत भी यहीं से हुई थी। इसे प्रसिद्ध शास्त्रीय गायिका छाया गांगुली और लोकसंगीत की प्रसिद्ध जानी पहचानी गायिका मालिनी अवस्थी ने बहुत सुंदर गाया है। दोनों ही गीत बहुत अच्छे से गाए गए हैं। सुनने के लिए इनके नामों पर क्लिक करें। दोनों गानों से संगीतकारों/गीतकारों/ गायिकाओं ने गालियां हटा दी हैं।
पूरी गजल गालियों सहित इस प्रकार है:
जब फागुन रंग झमकते हों तब देख बहारें होली की ।और दफ़ के शोर खड़कते हों तब देख बहारें होली की ।परियों के रंग दमकते हों तब देख बहारें होली की ।ख़म शीशए, जाम छलकते हों तब देख बहारें होली की ।महबूब नशे में छकते हों तब देख बहारें होली की ।।1।।
हो नाच रंगीली परियों का बैठे हों गुलरू रंग भरे ।कुछ भीगी तानें होली की कुछ नाज़ो-अदा के ढंग भरे ।दिल भूले देख बहारों को और कानों में आहंग भरे ।कुछ तबले खड़के रंग भरे कुछ ऐश के दम मुँहचंग भरे ।कुछ घुँघरू ताल झनकते हों तब देख बहारें होली की ।।2।।
सामान जहाँ तक होता है इस इशरत के मतलूबों का ।वो सब सामान मुहैया हो और बाग़ खिला हो ख़ूबों का ।हर आन शराबें ढलती हों और ठठ हो रंग के डूबों का ।इस ऐश मज़े के आलम में इक ग़ोल खड़ा महबूबों का ।कपड़ों पर रंग छिड़कते हों तब देख बहारें होली की ।।3।।
गुलज़ार खिले हों परियों के, और मजलिस की तैयारी हो ।कपड़ों पर रंग के छीटों से ख़ुशरंग अजब गुलकारी हो ।मुँह लाल, गुलाबी आँखें हों, और हाथों में पिचकारी हो ।उस रंग भरी पिचकारी को, अँगिया पर तककर मारी हो ।सीनों से रंग ढलकते हों, तब देख बहारें होली की ।।4।।
इस रंग रंगीली मजलिस में, वह रंडी नाचने वाली हो ।मुँह जिसका चाँद का टुकड़ा औऱ आँख भी मय की प्याली हो ।बदमस्त, बड़ी मतवाली हो, हर आन बजाती ताली हो ।मयनोशी हो बेहोशी हो 'भड़ुए' की मुँह में गाली हो ।भड़ुए भी भड़ुवा बकते हों, तब देख बहारें होली की ।।5।।
और एक तरफ़ दिल लेने को महबूब भवैयों के लड़के ।हर आन घड़ी गत भरते हों कुछ घट-घट के कुछ बढ़-बढ़ के ।कुछ नाज़ जतावें लड़-लड़ के कुछ होली गावें अड़-अड़ के ।कुछ लचकें शोख़ कमर पतली कुछ हाथ चले कुछ तन फ़ड़के।कुछ काफ़िर नैन मटकते हों तब देख बहारें होली की ।।6।।
यह धूम मची हो होली की और ऐश मज़े का छक्कड़ हो ।उस खींचा-खींच घसीटी पर और भडुए रंडी का फक्कड़ हो ।माजून शराबें, नाच, मज़ा और टिकिया, सुलफ़ा, कक्कड़ हो ।लड़-भिड़के 'नज़ीर' फिर निकला, कीचड़ में लत्थड़-पत्थड़ हो ।जब ऐसे ऐश झमकते हों तब देख बहारें होली की ।।7।।
(दफ= डफली, ख़म=सुराही, गुलरू=फूलों जैसे मुखड़े वाली,आहंग=गान, इशरत=ख़ुशी, मतलूबों=इच्छुक, मयनोशी=शराबनोशी,भवैयों=भावपूर्ण ढंग से नाचने वाले, माजून=कुटी हुई दवाओं को शहद या क़िवाम में मिलाकर बनाया हुआ अवलेह, टिकिया=चरस, गांजे आदि की टिकिया, सुलफ़ा=चरस, मजलिस = सभा)
बात सिर्फ एक होली गीत से शुरू हुई थी है जिसे एक तथाकथित तवायफ ने 110 साल पहले इतनी आसानी से लिख और गा दिया था।
पंकज खन्ना, इंदौर।
9424810575
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थोड़ा और:
(उनके लिए जो गणित में रुचि रखते हैं। बाकी होली खेलने जा सकते हैं या बत्ती बुझा के सो सकते हैं।)
तवा संगीत की बात हो गई। तवा संगीत के बहाने सामुदायिक सद्भाव की बात भी हो गई। गणित भी सामुदायिक सद्भावना की तरफ इशारा करता है। पढ़ें, समझें।
वैसे तो गणित में बहुत ज्यादा टाइप के नंबर होते हैं।लेकिन कुछ नंबर का कुछ ज्यादा ही वजूद होता है। जैसे: e, i, और π.
'e' Natural Logarithm ka base होता है। इसका मान लगभग 2.73 होता है।
'i' एक काल्पनिक संख्या है जिसका मान होता है: (√-1)
'π': किसी भी वृत्त/गोले/सर्कल के परिधि और व्यास के अनुपात को π कहा जाता है। इसका मान होता है: 3.14 या 22/7.
ये तीनों नंबर काफी अलग मिज़ाज के होते हैं। अपनी-अपनी जगह कहर मचाते रहते हैं, स्कूल के दिनों में बहुतों ने झेला है। एक दूसरे से इनका दूर-दूर तक कोई संबंध दिखाई नहीं पड़ता है। पर हैं निकट संबंधी।
जब Complex Number के विषय में थोड़ी सी पड़ताल की जाए तो सामने उभर कर आता है ये संबंध:
e^iπ+1=0
( e raised to the Power of product of i and π plus 1 is equal to zero). इस Equation के बारे में और जानने के लिए देखिए ब्लॉग: Love Thy Numbers.
इस छोटे से समीकरण में बहुत कुछ समाया हुआ है। तीन बहुत ही जुदा नंबर एक दूसरे से जुड़े हुए। एक भगवान, एक मालिक और एक ओंकार को दर्शाता हुआ नंबर : 1
बराबर का चिन्ह भी है। और ये सब किसके बराबर है?
शून्य! भारतीय दर्शन और नंबर शून्य भी समाहित है इसमें।
यहां आकर शायद नास्तिकों को भी भगवान के दर्शन हो जाते हैं। अगर e^iπ+1=0 संभव है तो फिर भगवान तो हैं ही।
अगर ये तीन बिल्कुल अलग-थलग नंबर इतने मधुर संयोजन के साथ रह सकते हैं तो विभिन्न धर्मावलंबी क्यों नहीं रह सकते?