(10) बटक के अंडे और कौए का शिकार!

तवा संगीत: (10) बटक के अंडे और  कौए का शिकार!


पंकज खन्ना, इंदौर

9424810575


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पिछले तीन साप्ताहिक लेख गर्भस्थ शिशु का संगीत, ये मॉडल ऐसा ही आता है, और वंदे मातरम काफी गंभीर और इतिहास पर आधारित थे। जब हम इतिहास* की बातें करते हैं तो कभी-कभी हास की इति हो जाती है;)

पर कभी-कभी इतिहास के साथ हास-परिहास और निश्छल उपहास भी संभव है। ये तब ज्यादा संभव हो जाता है जब आप इंदौर के पारसी मोहल्ले** के पारसी अंकल की बातें करें। सामान्यतः पारसी लोग बहुत सहज, जिंदादिल, हंसमुख, मिलनसार, बातूनी और सहृदय होते हैं। हमारे बचपन के पारसी मोहल्ले के पारसी अंकल, आप चाहें तो उन्हें पारसी बावा कह लें, बिल्कुल ऐसे ही थे और  हमारे रक्षक, दोस्त, और गाइड भी थे। इनका थोड़ा सा जिक्र बाईस कोप वाले आलेख में हो चुका है।

हम 12-14 ( सन 1974-76) साल के बच्चों को सिर्फ टेनिस बॉल से क्रिकेट खेलने की इजाज़त थी, लेकिन हम चाहते थे की कॉर्क बॉल या लेदर बाल से भी खेलें। अंकल की उम्र रही होगी 45 साल के लगभग, उनके खुद के बच्चे नहीं थे।  उन्होंने पूरी क्रिकेट किट का इंतजाम कर रखा था। हम शाम को  उनके साथ चुपके से  नेहरू स्टेडियम या जिमखाना मैदान या GPO के मैदान पर चले जाते थे। सब कुछ उन्ही का था तो वो सिर्फ बैटिंग करते थे या अंपायरिंग! उनको दोनों हाथों से बॉलिंग करते-करते काम चलाऊ  बॉलर बन गए, कॉलेज टीम में भी तीन साल खेल लिए।

शाम होने के पहले ही हम लोग अंकल के घर जमा होने लगते थे। वो टाइम उनका  ग्रामोफोन सुनने का होता था। हम भी सुनते थे। ये वो गाने होते थे जो उनके भी पिताजी के जमाने के होते थे। पर सब बच्चों को सुनना पड़ता था, क्रिकेट जो खेलना था! उन गानों की और फिल्मों की भी कहानी  सुननी पड़ती थीं! बहुत सारे नाम लिया करते थे वो: पारसी  थियेटर , खुर्शीद मिनोचर होमजी ( सरस्वती देवी) , कावस लॉर्ड, केरसी लॉर्ड, सोहराब मोदी, रुस्तम सोहराब, सोहराब कोला, सोहराब  रुस्तम धोंडी और पता नहीं कौन कौन से सोहराब!

उनको अशोक कुमार और देविका रानी पर फिल्माया गया गाना - मैं बन की चिड़िया बन के बन बन डोलूं रे। बहुत पसंद था। इसका म्यूजिक दिया है पारसी संगीतकारा खुर्शीद मिनोचर होमजी ( सरस्वती देवी) ने।  ये रिकॉर्ड उनके घर अक्सर बजता रहता था। इस गाने को सुनने और देखने के लिए ऊपर के लिंक को या यहां क्लिक करें।

ये रिकॉर्ड हमारे संग्रह में भी है। फोटो नीचे लगाई है। साथ में सरस्वती देवी की फोटो भी लगाई है। आंटी भी कुछ-कुछ सरस्वती देवी जैसी ही दिखाई देती थीं। चश्मा जरूर अलग से था। बहुत मस्ती-खोर थीं अंकल के समान। एक बार सब्जी वाले से अड़ा-उड़ी में उनको गुस्से में बोलते हुए सुना था। उस प्रसंग के बाद सभी बच्चों की शब्द सामर्थ्य (Vocabulary ) बहुत सुधर गई थी!




 

अंकल-आंटी सुबह और रात को रेडियो पर गाने; और शाम को ग्रामोफोन पर गुजराती ड्रामा टाइप के गाने सुना करते थे। हमें ग्रामोफोन वाले गाने बिलकुल समझ नहीं आते थे , पर बहुत अच्छे लगते थे क्योंकि  रेडियो पर बजने वाले गानों से इनका 'फील' बिल्कुल अलग था। उनके पास दो टाइप के ग्रामोफोन थे। एक भोंपू वाला और दूसरा पोर्टेबल वाला ( Dadaphone Talking Machine) , बोले तो बॉक्स वाला जिसे वो बाजा कहते थे।  वो बताते थे कि बाजा सिर्फ जंगल के डाक बंगलों में ले जाने के लिए था। गजब जलवे थे उनके!

वो कौन कौन से गाने सुनते थे, ज्यादा तो याद नहीं है पर इतना याद है वो किसी पुराने 'सोहराबजी रुस्तमजी धोंडी' का नाम बहुत लेते थे और उनके गाने सुनते रहते थे।

बहुत ढूंढने के बाद सन 1986 में बंबई के चोर बाजार में सोराबजी धोंडी का सिर्फ एक रिकॉर्ड मिला था। ये सोराबजी अन्य कई श्याम सुंदरियों के साथ पता नही कितने सालों से एक  बक्से में बंद थे। अब ये श्याम सुंदरी सुरक्षित है हमारे हरम में।

पारसी मोहल्ला और इंदौर 1984 में छोड़ दिया था और अंकल आंटी ने इंडिया छोड़ दिया था सन 1985 में। अफसोस है कि बड़े होकर उनसे कभी इस रिकॉर्ड या अन्य रिकॉर्ड्स के बारे में कभी कोई बात नहीं हो सकी। ये  ग्रामोफोन कंसर्ट रिकॉर्ड है, श्वान छाप रिकॉर्डों के आने के काफी पहले का। संभवतः ये 1905 से 1910 के बीच में बना रिकॉर्ड है।रिकॉर्ड की फोटो नीचे दी है। 




ऊपर फोटो वाले रिकॉर्ड में भूलभुलिया नाम का न्यू अल्फ्रेड थियेटर ***  का नाटक का अंश है जो ज्यादा साफ नहीं है।जब एक अच्छा नई टेक्नोलॉजी वाला सिस्टम ले लेंगे तो इसे भी सुनाया जाएगा।  

गूगल पर भी सोराबजी आर धोंडी का जिक्र बहुत कम मिलता है। पर रिकॉर्ड कंपनियों के कैटलॉग से मालूम पड़ता है कि इन्होंने 1905 से 1915 के बीच में बहुत सारे हास्य गीत गाए और रिकॉर्ड पर बहुत छोटी छोटी हास्य नाटिकाएं भी सुनाई। Net  पर इनका सिर्फ एक ही गाना मिला है, जिसे सुनने के लिए यहां क्लिक करें।

इसके अलावा सन 1920-30 की एक गुमनाम लेखक की किताब से सोराबजी धोंडी के किसी तीसरे ही गाने के बोल मिले हैं ग्रामोफोन कंपनी के रिकॉर्ड  no. P-12 के, जो नीचे उद्धृत हैं।

आप अगर इस पुस्तक 'हिंदी ग्रामोफोन रिकॉर्ड संगीत' का pdf  प्राप्त  करना चाहें तो  मैसेज कर दें। इतनी सालों के बाद कॉपी राइट की कोई समस्या नहीं है। इस किताब में 1905 से लेकर 1930 तक के सैकड़ों रिकॉर्ड्स के बोल लिखे हुए हैं। लेकिन प्रिंटिंग बहुत अच्छी नहीं है, और बहुत गलतियां हैं। जैसे इसी गाने में देख लीजिए आर(R) के बदले 'और' लिखा है। फिल्मी गानों के बारे में तो अथक प्रयत्नों से श्री हरमिंदर साहब ने गीत कोश लिख दिए। पर फिल्में बनने से पहले के रिकॉर्ड्स के बारे में तो अभी तक एक मात्र यही पुस्तक नज़र आती है जो आधी-अधूरी है, पर्याप्त नहीं है। इस दिशा में भगीरथ प्रयत्न की जरूरत है।

अब बात करते हैं उनकी किस्सागोई की। क्रिकेट खेलने के बाद सारा समान उनके घर पर सलीके से जमाते थे। अंकल थोड़ी ही देर में पारसी टोपी, पाजामा  और गहरे जेब वाली सफेद बंडी  पहनकर आराम कुर्सी में धंस जाते थे।सारे बच्चे अंकल के किस्से सुनने के लिए फर्श पर विराजमान हो जाते थे, खुशी-खुशी। उनका किस्से सुनाने का अंदाज ही कुछ और था। हर वाक्य के शुरू और आखिर में गालियां होती थीं। दो चार गालियां वाक्य के बीच में भी होती थीं। गालियां तो लिख नहीं सकते, विशेष वर्णों (Special Characters) से काम चला लेंगे। 

वैसे तो वो बहुत सारे किस्से सुनाते थे। विषय अलग अलग होते थे: अंग्रेजों के जमाने के पारसी, पुराने रिकॉर्डस्, पुरानी फिल्में, अग्यारी ( पारसियों का धर्मस्थान) की रस्में, दखमा**** का महत्व, पलासिया के सलीम ( सलमान खान के पिता) के साथ फटफटी की सवारी, सिमरोल और कसरावद में शिकार, फारूख इंजीनियर की बैटिंग, रूसी सूरती का हरफनमौला खेल, रूसी मोदी, पाली उमरीगर और नारी कॉन्ट्रैक्टर की कहानियां आदि आदि।

किस्सागोई के बीच में वैसे तो उनसे सारे प्रश्नों के जवाब मिल जाते थे लेकिन कोई टेढ़ा प्रश्न पूछ लो तो  किस्सों के बीच में बोलते थे: डीकरा टू भोट टेज है!( बेटा तू बहुत तेज है!) ये सुनने के बाद बड़ी चैंपियन वाली फीलिंग आती थी!

सच तो ये था कि वो अगर ये भी बताते की वो छावनी से सब्जी कैसे छांट के लाए, तो ये भी एक मजेदार  किस्सा ही होता था। सारे फिल्मी पारसी बावा इनकी डायलॉग डिलीवरी के सामने बहुत पीछे हैं।

एक किस्सा जो हम सबको बहुत पसंद था वो था सलीम का पारसी मोहल्ले में (सन 1955 से 1960 के बीच में कभी) फटफटी पर आना और फिर अंकल के साथ शिकार पर जाना। अब उन्ही के मुंह से सुन लीजिए बहुत ही संक्षेप में:

"@#π* टो डीकरा, उडडिन (उस दिन ) दोपहर को सलीम फटफटी  ले आया। बटक के अंडे, अंडे की टोकड़ी, बंडूक, बाजा  सब तैयार ठे (थे)।  *&!# उसकी फटफटी पे बैठ गया। एक हाथ में बाजा, दूसरे हाथ में बटक के अंडों की टोकड़ी, कंढे पर बंडूक और हम जंगल में शिकार करने निकल गए, डीकरा। *&!#

#π&! शाम हो गई ठी,  #*&!#  ढुंढलका होने लगा ठा। फिर हम डाक बंगले में रुक गए थे ठे। टुम टो जानटे हो , में तो बटक के अंडे खाटा हूं! टोकरी भर के ले गया ठा।"

हमने बीच में टोका: अंकल बटक के अंडे!?

(अंकल  बतख को बटक बोलते थे।)

अंकल डपटकर बोले:  "#π*&!# डीकरा @#π*&! डीकरा टू  भोट टेज है! &₹#@°®€." अंकल खुश की हमें हड़का दिया। और हमारे चेहरे पर भी विजयी भाव कि अंकल ने वो बोल दिया जिसे हम शिद्दत से सुनना चाहते थे!

अंकल आगे बोलते गए: "दोनों ने 5-5 बटक के अंडे खा लिए #π*&!#। हम दोनों हाथ में बंडूक लिए बाहर आ गए।  #*&!# दूर से देखा तो एक #π*&!# कौआ मुंडेढ़ (मुंडेर ) पर बैठा ठा। में पिलर की आड़ में छुप गया,  #*&!# पोजिशन  ले ली। सलीम मेरे पीछे पीछे। कौआ फुदक गया #*&!#। सलीम को बोला चुप रे सलीम!  में आगे बड़ा, कौआ फिर फुदका #π*&!#। मेने निशाना साधा और शूट कर दिया। साले का immediate dead हो गया! #*&!#। सलीम देखता रे गया!"

उन्होंने अगले दिन सलीम अंकल के साथ शेर का शिकार कैसे किया ये भी कई-कई बार सुनाया है ; पर जो मजा कौए के शिकार में है वो शेर के शिकार में कहां! 

आलेख अच्छा लगे तो ब्लॉग के नीचे कमेंट्स में ये जरूर लिख देना: डीकरा टू भोट टेज है!😜🤗

सभी दोस्तों को रक्षा बंधन और ओणम की हार्दिक शुभकामनाएं! फिर मिलेंगे अगले शनिवार को!🥰🙏🙏


पंकज खन्ना, इंदौर

9424810575


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* इतिहास शब्द की उत्पत्ति:

इतिहास' शब्द की उत्पत्ति संस्कृत के तीन शब्दो से (इति+ह+आस) से मिलकर हुई है। 'इति' का अर्थ है 'जैसा हुआ वैसा ही, 'ह' का अर्थ है 'सचमुच' तथा 'आस' धातु का अर्थ है 'निरन्तर रहना या ज्ञान होना'। इतिहास शब्द का तात्पर्य है "यह निश्चय था" या 'यही हुआ था'।

**पारसी मोहल्ला इंदौर का अति संक्षिप्त इतिहास

नाम तो था पारसी मोहल्ला पर ये मोहल्ला था बिलकुल सर्वधर्मी, सर्वजातीय स्थान।  हिंदू, मुसलमान, सिख ,ईसाई और  जैन सभी यहां निवास करते थे। सत्तर के दशक में भी  पारसी,  पारसी मोहल्ले में भी अल्पसंख्यक थे; शहर और देश की बात तो रहने ही दो। 

पारसी मोहल्ला सन 1873 से बसना शुरू हुआ था। सन 1840 में आगरा बॉम्बे रोड बनने के बाद अंग्रेजों ने  इस रोड के पूर्वी हिस्से में खुद रहना पसंद किया और पश्चिमी हिस्से में अन्य भारतीय समुदायों को रहने दिया। उन्होंने उस जमाने की सबसे बढ़िया जगह  जो रेसीडेंसी  के नजदीक  और कान्ह नदी के किनारे  थी,  पारसियों को आवंटित की और इसे नाम दिया पारसी मोहल्ला। 

 स्वेज़ नहर (Suez Canal) सन 1869 में बनी थी। इस नहर के बनाए जाने से पहले इंग्लैंड से भारत तक के समुद्री सफर में छह महीने लग जाते थे। इसी कारण से भारत में बहुत कम अंग्रेजी मेमें आया करती थीं। स्वेज़ नहर के खुलते ही ये समय घट कर सिर्फ एक महीना रह गया। अब बहुत सारी अंग्रेजन भारत आने लगीं, और कुछ इंदौर भी पहुंचीं। आप इन्हें थेम्स पुत्री कह सकते हैं।(थेम्स इंग्लैंड में बहने वाली एक नदी है)।

थेम्स पुत्रियां कान्ह नदी को थेम्स समान ही मानकर इसमें नौका विहार करती थीं। और इनकी सखी सहेलियां होती थीं पारसी मोहल्ले की कान्ह पुत्रियां। ये कान्ह नदी पूरब और पश्चिम का मिलन स्थल था। हमने ऐसी फोटो देखी हैं।

 सन 1879 में  पारसी मोहल्ले में अग्यारी ( पारसियों का मंदिर/धर्मस्थान) का निर्माण हुआ जिसे बनवाया था होरमुस जी मानेकजी भमगारा ने। जिस जगह पर ये अग्यारी है, वो हिस्सा अब उषागंज में आता है। ये अग्यारी संयोगितागंज थाने के पीछे स्थित है। सन 1900 तक आते-आते पारसी मोहल्ले में लगभग 500 पारसी निवास करते थे।

सन 1894 में बाई दिनबाई पेटिट ने सेठ जमशेदजी नौशेरवान जी पेटीट स्कूल की स्थापना की जो सन 1966 तक चलता रहा। इसे ज्यादातर पारसी स्कूल के नाम से ही जाना जाता था और इसमें थोड़े से गैर पारसी बच्चे भी पड़ते थे। इससे मालूम पड़ता है की इतने पारसी 1965-66 तक पारसी मोहल्ला छोड़ चुके थे कि पारसी स्कूल बंद करना पड़ा।सभी पारसी अच्छे बिजनेसमैन थे जो या तो इंदौर की नई कॉलोनियों में चले गए  या  परिवार सहित मुंबई, पुणे, गुजरात,इंग्लैंड या अमेरिका में पुनर्स्थापित हो गए।

 
सन 1920 में गोदरेज एडुल बेहराम ने ऑटोमोबाइल की डीलरशिप का व्यापार शुरू किया। अब ये नोशेरवान एंड कंपनी के नाम से जाना जाता है। तब तक शहर के ज्यादातर पारसी यहीं पारसी मोहल्ले में रहते थे।

सन सत्तर के दशक तक पारसी मोहल्ले में सिर्फ पांच-सात परिवार ही बचे थे। अब सन 2021में पारसी मोहल्ले में शायद कोई पारसी नहीं रहता है।पर उषागंज स्थित अग्यारी के  आसपास कुछ पारसी परिवार आज भी रहते हैं।एक अनुमान के अनुसार पूरे इंदौर में अब कुल लगभग 150 से 200 पारसी रहते हैं। 

वैसे तो पूरा मोहल्ला पूरी तरह से बदल चुका है फिर भी  कुछ पुराने मकानों के लकड़ी के खिड़की  दरवाजे के पैटर्न आज भी  पारसी लोगों के पुराने दिनों की याद दिलाते हैं।

वैसे ये संभावना बिल्कुल नही के बराबर है कि कोई पारसी इस आलेख को निकट भविष्य में पढ़ेगा, फिर भी इस प्यारे छोटे से समुदाय को नए पारसी साल  (16 अगस्त) की मुबारकबाद! Belated Happy Navroz!

***न्यू अल्फ्रेड थियेटर: यह सन 1880 में बना थियेटर है। पहले इसे Ripon Theatre के नाम से जाना जाता था। ये सोराबजी धोंडी और अन्य कई कलाकारों की कर्मस्थली थी। अब ये अल्फ्रेड टॉकीज के नाम से जाना जाता है।  पहले ये बॉम्बे का बहुत बड़ा सांस्कृतिक केंद्र था। पर अब ये सिर्फ B या C ग्रेड फिल्में दिखाने के लिए प्रसिद्ध है।
 

****दखमा। पारसी लोगों के धर्मानुसार मृत व्यक्ति के शरीर को लगभग 20-25 फुट ऊंचे ईंट या पत्थर के बने गोलाकर  टावर, जिसके ऊपर लोहे की मोटी जाली लगी होती है, पर विधिवत रख दिया जाता है ताकि मृत शरीर को गिद्ध खा सकें। इस टावर को ही  दखमा या Tower of Silence कहते हैं। पारसी लोगों के  मतानुसार मानव देह अपशिष्ट प्रबंधन का ये सबसे अच्छा प्राकृतिक उपाय है।🙏🙏









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