(8) ये मॉडल ऐसा ही आता है।
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दिसंबर 3, 1984 की काली रात को भोपाल गैस ट्रेजेडी होने के तुरंत बाद 'Safety' शब्द सरकारी और प्राइवेट कंपनियों के शब्दजाल का नया हथियार बनकर उभरा। बॉस लोगों को कांफ्रेंस/ट्रेनिंग में बतियाने और झांकी जमाने के लिए के लिए एकदम नया मसाला मिल गया।
सरकारी तेल कंपनियों को भी सरकारी दबाव में खयाल आया की उनके LPG Plants में भी Safety (सुरक्षा) होनी चाहिए। HPCL ने भी रातों-रात फैसला किया की सभी LPG प्लांटों में एक-एक सेफ्टी इंजीनियर को नियुक्त किया जाए।
हम कुछ महीने पहले ही HPCL Bombay में भर्ती हुए थे, ऑफिसर ट्रेनी थे और कंपनी द्वारा अनुबंधित किए गए VT के पास स्थित सेंट जेवियर कॉलेज के हॉस्टल में रहकर मस्ता रहे थे, अपने भाग्य पर इतरा रहे थे!
जनवरी 1985 के तीसरे हफ्ते में ही हमें मुंबई हेड क्वार्टर से पोस्टिंग का लेटर ,शाम की फ्लाइट के टिकट के साथ, बीच ट्रेनिंग में ही थमा दिया गया। मेरा सुंदर सपना बीत गया सुरैया वाला, और सेंट जेवियर छूट गया डेज़ी वाला!
अगले ही दिन खापरी (नागपुर) LPG Plant HPCL पहुंच गए मुंह लटकाए।😐
ना तो सेफ्टी के बारे में कुछ पता था और न ही एलपीजी के बारे। पर साला मैं तो साहब बन गया, ट्रेनिंग पीरियड में ही! और खापरी एलपीजी प्लांट की सुरक्षा भी कागजों पर सुनिश्चित हो गई, साब लोग भी खुश!
तीसरे ही दिन देखा कि एक कर्मचारी पीने के पानी के जग के नीचे LPG Liquid प्रेशर से डालकर जग ठंडा कर रहा है! कई किलो गैस को इस प्रकार से ऐसे लीक होते देखकर 60 decibel वाली आवाज में चिल्लाकर पूछा ये क्या कर रहे हो!? तो वो बहुत आराम से बोला: मामू, ये मॉडल ऐसा ही आता है! बाकी कामगार जो इधर उधर सिलेंडर पर उकडूं बैठे गपिया रहे थे, और मैनेजमेंट को उनका 'खून चूसने' के लिए कोस रहे थे; जोर जोर से हंसने लगे!
हमने तुरंत वरिष्ठ साथियों को बताया। उन्होंने हंस के टाल दिया! और हमें Immature (अपरिपक्व ) बता के पल्ला झाड़ लिया। प्लांट मैनेजर को भी बताना चाहा पर वो व्यस्त थे सुरक्षा के उपायों पर ऊपर वालों से फोन पर चर्चा जो कर रहे थे, हमें सुनने के लिए टाइम नहीं था!
शायद कुछ बोलने का तरीका, चाल ढाल, चेहरे पर जगह-जगह दाढ़ी के बीच उगे मुंहासे , ढीले-ढाले कपड़े, कुछ तथाकथित अपरिपक्वता, अवांछनीय अति उत्साह, लगातार संयंत्र (Plant)में घूमते रहना, बैठे-बैठे या खड़े-खड़े भी हिलते रहना या शायद कुछ और; कुछ तो उन्हें अलग लगा होगा। ऑफिसर्स के बीच में भी हमारे बारे में जल्दी प्रचलित हो गया: ये मॉडल ऐसा ही आता है! लोग मज़ाक उड़ाते थे। हमने इसे स्वीकार भाव से अभिनंदन के रूप में अंगीकार किया।आज भी यही करते हैं, क्योंकि ये मॉडल ऐसा ही आता है।🙏
नागपुर पहुंचने के बाद कुछ ही सालों में थोड़े तवे इकठ्ठे हो गए थे।पता नहीं कैसे, पर कुछ सहकर्मियों को कुछ सालों बाद मालूम पड़ गया तो एक दिन घर आ धमके, आश्चर्य प्रकट किया! जैसे पूछना चाहते हों ये लाशें क्यों बिछा रखी हैं इधर उधर!?
किसी ने भी इसके पहले चलता ग्रामोफोन नहीं देखा था। उनको बड़ा आनंद आया। उस समय तक तो Vinyl (45 and 33 RPM वाले रिकॉर्ड्स ) का चलन भी लगभग बंद हो चुका था। रेडियो भी मरणासन्न अवस्था को प्राप्त कर चुका था।सभी लोग संगीत कैसेट्स से ही सुनते थे।
सब कुछ पुराना ही था पर उनके लिए तो नया था: हिलते, घूमते, घिसे-पिटे तवे, ग्रामोफोन और उसका भोंपू, संगीत के साथ थोड़ा Noise या शोर। उन्होंने पहले तो तवों, ग्रामोफोन और गानों के मजे लिए और फिर हमारे! एक सज्जन केन लगे : अरे ये तो तेरे समान घूमते, हिलते और खड़कते हैं! ये मॉडल भी ऐसा ही आता है क्या!?
तवों के बारे में यकीनन आप कह सकते हैं: हां, ये मॉडल ऐसा ही आता है! जो पुराने बचे हैं बस वो ही हैं। अब नए नहीं बनते हैं। 60 के दशक से ही 78 RPM वाले तवे बनना कम हो गए थे, और Vinyl का प्रचलन बढ़ गया था। और सन 75-76 तक आते आते ये बिल्कुल बंद हो गए थे। हालांकि Vinyl बनना बंद नहीं हुए।
तवे खड़कते हैं। आवाज़ करते हैं। चलते चलते अटक जाते हैं। समझने जाओ तो कई बार समझ में नहीं आते हैं। ये सब तो उनकी कुंडली में लिखा है। ये तो ऐसे ही चलेंगे भिया! झेल सको तो झेल लो!
पर पुराने तवे खड़कते क्यों हैं, ये समझना भी बहुत जरूरी है। भारत में सन 1902 से संगीत का मुद्रण (रिकॉर्डिंग) शुरू हुआ। (भारत में तवों का उत्पादन 1908 के बाद शुरू हुआ। उसके पहले रिकॉर्डिंग के बाद मोम के मास्टर रिकॉर्ड जर्मनी भेजे जाते थे थोक उत्पादन के लिए।)
उस जमाने में बिजली आ तो गई थी, पर भारत में इसकी पहुंच 10 प्रतिशत घरों में भी नहीं थीं। बिजली से चलने वाले उपकरण तो नाम मात्र के ही थे। बहुत से लोगों को ये पढ़ के हैरानी हो सकती है की ध्वनि मुद्रण ( Sound Recording) भी बगैर बिजली के होता था। और ये बगैर बिजली का ध्वनि मुद्रण पूरी दुनिया में सन 1925 तक चलता रहा।इस प्रकार के ध्वनि मुद्रण को Acoustic Recording कहा जाता है। ये सचमुच Mechanical Engineering का एक अद्भुत नमूना है।
साउंड रिकॉर्डिंग या ध्वनि मुद्रण के लिए दो बड़े कमरों का उपयोग किया जाता था। एक बड़े कमरे की दीवार में फिक्स किए गए 16 से 20 इंच व्यास ( Diameter) के शंकु नुमा ( Conical) भोंपू (Horn) में गायक, गायिका, वाद्य कलाकार लगभग घुसकर गाना बजाना करते थे। गायक कलाकार तो अपनी गर्दन भोंपू में फंसा देते थे और चिल्लाकर गा देते थे ,पर साजिंदे ( ज्यादातर तबलची और सारंगिये) भोंपू से दूर रह जाते थे।
नीचे दिए फोटो को देखकर आपको Acoustic Recording कैसे होती थी इस बात का आइडिया लग जायेगा।
और सन 1915 के इस नीचे वाले फोटो में गौहर जान को देखिए और उनके पीछे लगे शंकु के आकार के भोंपू को देखिए।( ऐसा लगता है ये अभी पलटेंगी और सावन के महीने में हमारे लिए कजरी* गाने लगेंगी: ऐसे सावन के महिनवा में गोदवा ले गुदना...! और अंत में कहेंगी: 'मेरा नाम गौहर जान है, मैने कजरी* गाई है'।)
इस शंकु नुमा भोंपू का दूसरा और छोटा सिरा दूसरे कमरे में निकलता था। इस दूसरे सिरे से एक लचीली तार लगी होती थी जो एक Diaphragm ( डायफ्राम, झिल्ली,मध्यपत) से जुड़ी होती थी। इस झिल्ली से एक सुई जुड़ी हुई रहती थी। इन सबके सहारे के लिए लोहा लक्कड़ के इंतजामात रहते थे।
ध्वनि के प्रभाव से पहले डायफ्राम और फिर सुई हिलती है।इस हिलती सुई को ग्रामोफोन पर रखे मोम (Wax) के घूमते तवे पर रख दिया जाता था। ग्रामोफोन को पूर्व निर्धारित गति (78 RPM) से घुमाया जाता था। ग्रामोफोन को चलाने के लिए कोई इलेक्ट्रिकल मोटर नहीं होती थी। इसे घड़ी के स्प्रिंग वाले तंत्र से घुमाया जाता था और गति को नियंत्रित करने के लिए इसमें एक यंत्र लगाया जाता था जिसे मैकेनिकल इंजीनियरिंग में Governor कहते हैं। ( मैकेनिकल इंजीनियरिंग के छात्रों को Theory of Machines, Pickering Governor और Hartnell Governor याद आ सकता है। )
जैसे जैसे सुई हिलती थी, वैसे वैसे मोम के तवे पर कुंडली ( Spiral) बनती जाती थी। बस यही है तवों की जन्म कुंडली और ध्वनि मुद्रण की भी जन्म कुंडली! एक बार मोम की कुंडली बन जाने के बाद इसकी कई प्रतिलिपियां Shellac (लाख) में तैयार कर ली जाती थीं। यही कहलाते थे 78 RPM वाले तवे।
तवा बनाकर बाजार में लाने की प्रक्रिया में पूरा एक साल लग जाता था। विलायत से अंग्रेज Sound Engineer डेढ़ दो महीने कि समुद्री यात्रा करके आयेगा, अस्थाई स्टूडियो बनाएगा, कलाकारों को ढूंढेगा, गाने रिकॉर्ड करेगा। फिर मोम से बने रिकॉर्ड्स को समुद्र के रास्ते से जर्मनी लेकर जायेगा। जर्मनी में कई हफ्ते प्रतीक्षा सूची में पड़े रहने के बाद, रिकॉर्ड बनेंगे और भारत आएंगे ,फिर उन्हें रेल गाड़ी और घोड़ा गाड़ी से पूरे भारत में वितरित किया जाएगा। लग गया पूरा एक साल।
अब इन तवों पर रचित गानों को सुनने के लिए इससे उलट विधि को उपयोग में लाते थे। ग्रामोफोन पर तवा रखा, उसी रिकॉर्डिंग वाली गति (78 RPM) पर घुमाया, तवे की कुंडली पर सुइ रख दी और भोंपू से गाना बाहर!
ना कोई माइक्रोफोन होते थे और न ही कोई एम्प्लीफायर। फिर भी उस पीढ़ी के स्वप्नदर्शी वैज्ञानिकों ने ध्वनि को कैद कर दिया! संगीत के सुर,ताल,लय और अन्य प्रभावों के नियंत्रण के लिए कोई यंत्रण नहीं था।संगीत में प्रयोग के लिए उनके पास ज्यादा विकल्प नहीं थे।गायक कलाकारों या साजिंदों को भोंपू के और अंदर भर दो या थोड़ा दूर कर दो। झिल्ली को थोड़ा मोटा या पतला कर दो या फिर सुई को थोड़ा ज्यादा पैना या कुंद (Blunt) कर दो।
टेक्नोलॉजी के नाम पर पीछे के रूम में जो लोहे-लकड़ी ( प्लास्टिक की एंट्री नहीं हुई थी तब तक दुनिया में) का असलहा था उसमें कुछ जुगाड लगा दो, तेल-पानी लगा दो, कॉटन की या रबर की पैकिंग ठूंस दो! बस यही था नवप्रवर्तन (innovation) उस जमाने का।
फिर जैसे-जैसे धीमी गति से प्रगति हुई तो अलग अलग साइज और मैटेरियल के भोंपू और सुइयां भी बनने लगीं। बस यही कुछ विकल्प हुआ करते थे Sound Engineer और गायक/ वाद्य कलाकारों के लिए!
Sound Engineering के कालों का इतिहास कुछ ऐसा है:
(1) ध्वनिक काल (The Acoustic Era) (1892–1925)
(2) विद्युतीय काल (The Electrical Era)(1925–1945)
(3) चुंबकीय काल (The Magnetic Era)(1945–1980)
(4) अंकिय काल (The Digital Era) (1980–आजतक).
ध्वनिक काल या विद्युतीय काल में गाए हुए गानों की रिकॉर्डिंग में गुणवत्ता में थोड़ी कमी हो सकती है। लेकिन उसके लिए गायक या वाद्य कलाकारों को दोष नहीं दिया जा सकता है।
खड़कते तवों का संक्षिप्त इतिहास जानकर शायद आप इसके संगीत और स्वरों की आलोचना न करते हुए इसके अंदर के विज्ञान, कला, मासूमियत आदि को समझेंगे और इन 'शोर' करते गीतों का भी आनंद ले पाएंगे।
अब आप समझ सकते हैं कि वो तवे जो विशेष रूप से 1925 से भी पहले से यात्राएं कर रहे हैं, वास्तव में जीती जागती, बोलती गाती कलाकृतियां हैं। ये देश की सांगीतिक-सांस्कृतिक धरोहर हैं बिल्कुल वैसे ही जैसे कोई अनमोल पेंटिंग हो या शिल्प हो!🙏🙏🙏
पंकज खन्ना
9424810575
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*कजरी पूर्वी उत्तर प्रदेश का प्रसिद्ध लोकगीत है जिसे वर्षा ऋतु में सावन के महीने में गाया जाता है। कजरी गीतों में वर्षा ऋतु का वर्णन, विरह-वर्णन तथा कृष्ण की लीलाओं का वर्णन मिलता है। इसमें श्रृंगार रस की प्रधानता होती है और शक्तिस्वरूपा देवी का गुणगान भी मिलता है।