(19) बाबुल मोरा नैहर छुटो ही जाए-अख्तर पिया
तवा संगीत: (19) बाबुल मोरा नैहर छुटो ही जाए-अख्तर पिया
पंकज खन्ना, इंदौर।
9424810575
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भारत के गवर्नर जनरल लार्ड डलहौजी (1848-56) ने कुख्यात हड़प नीति (Doctrine of Lapse) के तहत लखनऊ के 11 वें और आखिरी नवाब वाजिद अली शाह ( 1822 – 1887) को सन 1856 में लखनऊ से निर्वासित करके कोलकाता में मोटी पेंशन के साथ भेज दिया।
सन 1857 की क्रांति में नवाब वाजिद अली शाह की बेगम हजरत महल ने लखनऊ में अकेले मोर्चा संभाला और गोमती नदी के उत्तर में 140 दिनों तक अंग्रेजों से युद्ध किया। अंततः अंग्रेजों की सन 1858 में जीत हुई और अवध के नवाबों की सल्तनत का अंत हुआ। और इसी के साथ लखनऊ की उस समय की सांस्कृतिक विरासत को बनारस और कलकत्ता में नया आश्रय ढूंढना पढ़ा।
(नवाब वाजिद अली शाह की वंशज विलायत बेगम ने कैसे 9 सालों तक दिल्ली के रेलवे स्टेशन के वीआईपी लाउंज पर कब्जा करके 9 साल रहने के बाद के बाद कैसे दिल्ली के सबसे भुतहा मालचा महल में निवास किया ; ये जानने के लिए आप इस वीडियो को देख सकते हैं।)
नवाब वाजिद अली शाह एक कवि, नाटककार, नर्तक और कला के संरक्षक भी थे। उन्हें शास्त्रीय नृत्य के प्रमुख रूप कथक के पुनरुद्धार के लिए व्यापक रूप से श्रेय दिया जाता है।
वाजिद अली शाह पर शास्त्रीय गायन परंपरा को 'सस्ता' करने और ग़ज़ल और ठुमरी जैसे 'हल्के' संगीत को बढ़ावा देने का आरोप लगाया गया है। लोकप्रिय धारणा यह है कि हल्का शास्त्रीय रूप, ठुमरी वाजिद अली शाह द्वारा बनाया गया था। उनकी लिखी सबसे लोकप्रिय ठुमरी है: बाबुल मोरा नैहर छूटो जाए।
वाजिद अली शाह का उपनाम "कैसर" था, लेकिन उन्होंने अपनी कई रचनाओं के लिए छद्म नाम "अख्तर पिया" का इस्तेमाल किया। पुरुष कलाकारों के नाम के पीछे 'पिया' शब्द जोड़ने का चलन शायद यहीं से शुरू हुआ। महिला कलाकारों को तो जान, बाई, बेगम आदि नामों से पहले से जाना ही जाता था।
उन्नीसवीं सदी के आखिरी दो दशक और बीसवीं सदी के पहले दो दशक में प्रमुख पुरुष संगीतकार जो ठुमरी शैली में विशेषज्ञता रखते थे और रचना भी करते थे, उनमें से एक थे फर्रुखाबाद के ललन पिया या लल्लन पिया (1850-1927); जिनकी बंदिश ठुमरी बेहद लोकप्रिय थी। वैसे उनका असली नाम पंडित नंदलाल शर्मा था। उनकी लिखी और गाई ठुमरियों पर आज भी देश में शास्त्रीय संगीत के कार्यक्रम रखे जाते हैं।
मथुरा के कल्ले खान 'सरस पिया' (1860-1926), रामपुर के नज़र अली 'नज़र पिया' और बरेली के 'सनद पिया' भी काफी प्रसिद्ध थे। इसके अलावा भी कादिर पिया, माधो पिया, चांद पिया और अन्य कई पियाओं ने काफी नाम कमाया। नवाब वाजिद अली शाह के जीवन काल में तो संगीत मुद्रण की शुरुआत नहीं हुई थी। लेकिन किसी और पिया की आवाज में तवा बना है या नहीं बना है इस बात की पुख्ता जानकारी नहीं है। वक्त की बेरहम आंधी बहुत सारे तवे लील चुकी है। ऊपर लिखे पिया* लोगों का तो मालूम नहीं पर पियारा साहेब, जो नवाब वाजिद अली शाह के संबंधी और 'नवाबों के नवाब' माने जाते हैं, के बहुत सारे तवे जो 1904 से 1940 के बीच में रिकॉर्ड किए गए थे आज भी बच गए हैं।
ग्रामोफोन काल में महिला कलाकारों में गौहर जान, मलका जान आगरा वाली, जोहरा बाई आगरा वाली और जानकी बाई इलाहाबाद वाली सबसे ज्यादा प्रसिद्ध थीं और इनके नाम का डंका बजता था। पुरुष कलाकारों में सबसे ज्यादा नाम पियारा साहब का ही चलता था। किसी तवे पर उनका नाम अंग्रेजी में Peara Saheb लिखा होता था और किसी में Pyara Saheb लिखा होता था।
ऊपर पियारा साहेब की फोटो लगाई है। उनकी कद-काठी और आवाज दोनों बारीक थीं। जानों और बाइयों के दौर में पियारा साहेब ने जो गीत गाए हैं उन्हें सुनकर आपको लगेगा जैसे कोई बाइजी ही गा रही हैं। पियारा साहेब के गाए कुछ गानों के लिंक्स नीचे दिए हैं:
इनके अन्य गाने आप You Tube और Archives of Indian Music की साइट पर सुन सकते हैं।
फिल्मों के शुरू होने के बाद बाई लोग जान बन गईं, और देवीयां बेगम बन गईं और गायकों के नामों के साथ लगने वाला पिया शब्द तो लगभग लुप्त ही हो गया।
किस्से , कहानियों, सस्ते साहित्य ,घटिया चैनल्स और भोजपुरी फिल्मों में पिया शब्द आज भी जिंदा है: खूनी पिया, दरिंदा पिया, जुल्मी पिया, शैतान पिया, नूरी पिया, जानू पिया, शौना पिया आदि।
(पिया शब्द हिंदी फिल्मी गानों में आज भी आता रहता है। कुछ बेहतरीन गाने याद आ रहे हैं: आज की रात पिया दिल न तोड़ो, मेरे पिया गए रंगून, ए लो मैं हारी पिया, पिया एसो जिया में समाई गयो रे, पिया तू अब तो आजा। इस लाजवाब घोड़ा छाप गाने के बारे में तो क्या लिखें? बस सुन लेते हैं: पिया पिया मेरा जिया पुकारे। शुरु हुए, तो लिस्ट तो बहुत लंबी हो जायेगी। अभी तो लौटते हैं मुद्दे पर।)
अख्तर पिया मतलब नवाब वाजिद अली शाह की लिखी , गाई और प्रचलित की गई भैरवी ठुमरी 'बाबुल मोरा नैहर छूटो जाए' असल में दुखद गीत है, उनके दर्द और पीड़ा का प्रतीक है ; जो उन्हें अपने प्रिय लखनऊ से अंग्रेजों द्वारा निर्वासित होने पर मिला था। उन्होंने इस ठुमरी में लखनऊ को नैहर बताते हुए अपने मन की व्यथा का बहुत मार्मिक चित्रण किया था:
बाबुल मोरा, नैहर छूटो ही जाए
बाबुल मोरा, नैहर छूटो ही जाए
चार कहार मिल, मोरी डोलिया सजावें
मोरा अपना बेगाना छुटो जाए
बाबुल मोरा ...
आँगना तो पर्बत भयो और देहरी भयी बिदेश
जे बाबुल घर आपना मैं पिया के देश
बाबुल मोरा ...
बाबुल मोरा, नैहर छूटो ही जाए
बाबुल मोरा, नैहर छूटो ही जाए
नवाब का अप्रत्यक्ष संदेश तो ये था कि सभी को 'नैहर' छोड़कर जाना है चार कहारों के कांधे पर। बाद में इस गाने का मतलब सीधे बिदाई गीत से ही लिया जाता है। फिल्मों , tv और असली जीवन की शादियों में भी बिदाई के समय ये गीत बजना आवश्यक है।
संगीत की दुनिया में इस गीत को कुंदन लाल सहगल ( फिल्म: स्ट्रीट सिंगर 1938, संगीतकार आरसी बोराल) की आवाज में सबसे अधिक जाना जाता है। और उन्होंने इतना अच्छा गाया है कि जब भी इस गाने की बात चलती है तो उन्हीं का नाम सबसे पहले याद आता है। जबकि बहुत से कलाकारों ने उनके पहले और बाद में भी इसे गाया है! इसी फिल्म में कानन देवी ने भी इसी गीत को बहुत अच्छा गाया है , लेकिन वो वर्शन इतना प्रसिद्ध नहीं है।
और एक बात, कई तवों पर इस गीत के रचयिता का नाम आरजू लखनवी बताया गया है, जो सही नहीं है। ये गाना तो उनके जन्म से बहुत पहले नवाब वाजिद अली शाह लिख चुके थे।
उपलब्ध तवों के अनुसार सबसे पुराना 'बाबुल मोरा' गीत तो मलका जान ऑफ आगरा की आवाज में है , जो लगभग 1915 के आसपास कभी रिकॉर्ड किया गया होगा। उसके बाद उस्ताद फैयाज खान की आवाज़ में भी ये ठुमरी उपलब्ध है। इसके अलावा भी कुछ तवे हो सकते हैं जिनका अस्तित्व में होना अभी तक हमें पता नहीं चला है।
जयपुर घराने की पद्म भूषण केसरबाई केरकर (1892-1977) अकेली भारतीय गायिका हैं जिनकी आवाज अंंतरिक्ष मे भी गूंजती है । उनके गाए गीत `जात कहां हो' और अन्य देशों के कलाकारों के गाए गीतों को दो तवे में रिकॉर्ड करके अंतरिक्ष यान वायजर 1 और 2 की मदद से नासा द्वारा अंतरिक्ष मे सन 1977 में भेेजा गया है। इन तवों में पृथ्वी पर जीवन और संस्कृति की विविधता को चित्रित करने के लिए चयनित ध्वनियां, संगीत और फोटो हैं जो ब्रह्मांड में बुद्धिमान जीवों को खोजने की एक कोशिश है।
ऐसी इकलौती भारतीय कलाकार सुरश्री केसरबाई केरकर ने भी 'बाबुल मोरा' सन 1967 में गाया और खूब गाया है। एक बार जरूर सुनें।
और हां इस गीत को जगमोहन सुरसागर ने भी बहुत सुंदर गाया है। जगमोहन बार-बार ब्लॉग में धीरे से एंट्री कैसे मार लेते हैं; ये न बता सकूंगा में!
उपरोक्त छह कलाकारों ( सहगल, कानन देवी, मलका जान, उस्ताद फैयाज खान, केसरबाई केरकर और जगमोहन) के अलावा भी कई बड़े कलाकारों ने इस ठुमरी को अपनी आवाज दी है। आपकी सुविधा के लिए इन सभी के गाए 'बाबुल मोरा' के लिंक्स नीचे दिए हैं, जिनको क्लिक करके आप अपनी पसंद के कलाकार की आवाज में सुन सकते हैं:
भीमसेन जोशी , जगजीत सिंह ( फिल्म अविष्कार सन 1973, संगीतकार कनु रॉय), किशोरी बाई अमोनकर , बेगम अख्तर, गिरिजा देवी , सिद्धेश्वरी देवी, दुर्गेश नंदिनी बाई, पंडित अजय चक्रवर्ती, अनूप जलोटा, मन्ना डे, गिरिजा देवी और शोभा गुर्टू, लता मंगेशकर भोजपुरी (नैहर छुट्टल जाए, 1964), रोनू मजूमदार बांसुरी, अबशार, अलीशा चिनॉय, अरिजित सिंघ।
कुछ अच्छे नाम छूट गए हो सकते हैं। कृपया कोई भी गलती दिखे तो ब्लॉग के नीचे कमेंट्स सेक्शन में जरूर लिख दें! गुणी पाठकों से निवेदन है कि इस गीत के बारे में जो भी अतिरिक्त जानकारी आपके पास हो तो कृपया नीचे लिख दें!🙏🙏🙏
पंकज खन्ना, इंदौर।
9424810575
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*हमारे इंदौर में ये पिया शब्द नहीं, भिया शब्द चलता है। अगर पिया शब्द भी चलता होता तो खाया-पीया-भिया भी भिया पिया हो जाता। और भिया का अड्डा भिया-पिया का ठिया कहलाता। लोगों के नाम कुछ ऐसे होते: केलास पिया, रमेस पिया, सुरेस पिया, असोक पिया, पंकज पिया आदि!
भिया राम या सियाराम के बदले में लोग कहते: पिया राम! नखरे के साथ इंदौरी भिया/पिया की बेसुरी ठुमरी भी झेलनी पड़ती अलग से। बच गए!😀🙏