(4) मर्दों ने उसे बाज़ार दिया!
तवा संगीत: मर्दों ने उसे बाज़ार दिया!
पंकज खन्ना
9424810575
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आज हम सबसे पहले शुरू करते हैं Goa के Kurdi गांव की महान संतान बाई मोगुबाई कुर्डीकर के गाए गाने से। ये पद्मविभूषण किशोरीजी अमोनकर की माताजी हैं। इन्होंने आज के प्रचलित 'वंदे मातरम' से बहुत पहले इसे शास्त्रीय संगीत के साथ 78 RPM पर रिकॉर्ड कराया था।सुनने के लिए यहां क्लिक करें।
वंदे मातरम से इसलिए आगाज़ कर रहे हैं क्योंकि आज हम उन कलाकार माता, बहनों को याद करने वाले हैं जिन्हे हमारे दोगले समाज ने पहले तो तवायफ, बाई और जान जैसे पवित्र नामों से अलंकृत किया और फिर कालांतर में इन नामों का मतलब पूरी तरह से बदल जाने दिया। यही नहीं इन कलाकारों को कई गंदे अशोभनीय जातिसूचक या व्यवसायसूचक नाम भी दिए गए जो यहां लिखे जाने योग्य नहीं हैं।
आप लोगों के सहयोग से तवा तो पिछले 3 हफ्तों से अविरत घूम ही रहा है। आज हम शब्द तवायफ के संदर्भ में घूमना या चक्कर लगाना की बात भी करेंगे । तवायफ शब्द बना है अरबी शब्द तौफ से। तौफ़ का मतलब है परिक्रमा करना या गोल गोल घूमना।यहां ये भी गौर करें कि 'तवाफ़' शब्द भी बना है तौफ़ से।
तवाफ़ इस्लाम की एक पाक रीति को कहते हैं जिसमें हज यात्री मक्का के पवित्र काबा भवन की सात बार परिक्रमा करते हैं।
एक स्थान से दूसरे स्थान तक यात्रा और परिक्रमा करने वाले गायक, गायिकाएं, नृतक, और वाद्य कलाकारों के समूह को तौफ़ कहा जाता था। और इस समूह की पारंगत गायिकाएं और नृतकियों को तवायफ के नाम से जाना जाता था।
ये तवायफें बहुत तहज़ीब वाली हुआ करती थीं। ये पुरुष तबलचियों , सारंगियों और अन्य वाद्य कलाकारों को नौकरी पर रखती थीं। बहुत सारे अन्य पुरुष और महिला कर्मचारी भी इनसे जुड़े रहते थे।
ये एक प्रकार की मातृसत्ता ही थी जो कई पीढ़ियों तक चली। लगभग पूरे भारत में पितृसत्ता स्थापित थी पर उसके बीच में ये तवायफों की मातृसत्ता का एक बहुत छोटा सा द्वीप भी था जो 19 वीं सदी के खतम होते होते बहुत सीमित हो गया था।
सन 1857 की क्रांति में कई तवायफों ने अंग्रेजों के खिलाफ महत्वपूर्ण जानकारियां क्रांतिकारियों तक पहुंचाई थीं। अंग्रेजों ने इसके बाद रईस और प्रभावकारी तवायफों के खिलाफ टैक्स वसूली की मुहिमें चलाई और अपने कब्जे के मीडिया के सहयोग से इनके विरुद्ध समाज में सालों साल तक लगातार दुष्प्रचार किया। अंग्रेजों के वफादार पिठ्ठुओं ने भी कोई कसर नहीं छोड़ी।
वो छोटे-बड़े अमीर जिन्हें इन तवायफों ने कभी अपने पास तक नहीं फटकने दिया उन्होंने भी इनका भरपूर चरित्र हनन किया। फिल्म इंडस्ट्री शुरू होने के बाद ज्यादातर फिल्मों ने भी तवायफों को वेश्या के रूप में ही पेश किया। और अंत में वेश्याओं ने भी मार्केटिंग करके अपने आप को तवायफ के रूप में ही प्रस्तुत किया।
तवायफों की तुलना वेश्याओं से करना इन तवायफों और इनके संगीत/ नृत्य के साथ अन्याय है तथा उनकी कला का अपमान है। दूसरी अहम बात, वेश्याओं को वेश्या बनाने वाला भी मर्द ही रहा है । वेश्याओं का दोष तो नगण्य है।
इस मोड़ पर साहिर लुधियानवी का लिखा गीत सुन लेते हैं और इस ब्लॉग के मर्द पाठक अपने मर्द होने के कारण आज फिर से एक बार शर्मिंदा हो सकते हैं:
फिल्म का नाम: साधना (1958), संगीतकार: एन.दत्ता
और गायिका: लता मंगेशकर।
औरत ने जनम दिया मर्दों को, मर्दों ने उसे बाज़ार दिया
जब जी चाहा मसला कुचला, जब जी चाहा दुत्कार दिया।
और गायिका: लता मंगेशकर।
औरत ने जनम दिया मर्दों को, मर्दों ने उसे बाज़ार दिया
जब जी चाहा मसला कुचला, जब जी चाहा दुत्कार दिया।
ऊपर वाले नीले वाक्य को क्लिक करके सुनें।
अक्सर इन तवायफों के संबंध किसी एक रईस या प्रभावी व्यक्ति से होते थे।ये उनकी पत्नियां या मिस्ट्रेस होती थीं।पर ये देह व्यापार में लिप्त नहीं होती थीं। अगर इन्हें छोड़ दिया जाता था तो ये या तो अकेली रहती थीं या फिर किसी दूसरे व्यक्ति के साथ पत्नी या मिस्ट्रेस बन कर रहती थीं।
उस दौर में तवायफें को बाई और जान का नाम आदरपूर्वक प्रदान किया गया था। सबसे ज्यादा इज़्ज़त बाईयों को ही मिलती थी।बाईयां सिर्फ गाना गाया करती थीं। जान गाना गाने के साथ नृत्य भी करती थीं। उन्हें भी बहुत इज्जत बख्शी जाती थी। जान ज्यादा प्रतिभाशाली होती थीं तो पैसा भी ज्यादा कमाती थीं। जानी ये तो जानी बात है--हर किसी को जान ही अधिक प्यारी होती है!
इनसे नीचे कनीज़ होती थीं जो कोठे पर कायदे और नज़ाकत से छोटे मोटे काम किया करती थीं जैसे शमां जलाना, हुक्का पानी भरना/ रखना, महफिल के बीच में तोते का पिंजरा अनिवार्य रूप से रखना आदि।
और इनसे नीचे के ओहदे पर रहने वाली महिलाएं जिनमें कुछ हुनर नहीं होता था, वेश्या होती थीं जिन्हें बहुत बुरे शब्दों से भी पहचाना जाता था जिनका नाम भी लेना उचित नहीं होगा।
गुलजार ने सन 1971 में फिल्म अनुभव के लिए गाना लिखा था: मुझे जान न कहो मेरी जान... । सुनने के लिए नीले वाक्य को क्लिक करें।
ऐसा लगता है जैसे गुलजार ने गुजरे जमाने की सभी तवायफों के दिल की बात कह दी हो इस गाने में। कनू रॉय ने उतना ही मधुर संगीत दिया है। और गीता दत्त ने तो इस जान वाले गाने में महरूम जानों की जान ही डाल दी है और श्रोताओं की जान ही ले ली है! इस गाने को सिर्फ सुनें ही नहीं बल्कि देखें भी। संजीवकुमार और तनुजा बहत अच्छे दिखाई दिए हैं इस गाने में। इस गाने में जान है !!!
'इस गाने में जान है' से मेरा मतलब है कि ये गाना स्वचलित गाना है।स्वचलित बोले तो, इसे सुनने के लिए कानों की भी जरूरत नहीं है! दिल ने गाने की दरख्वास्त भेजी और दिमाग ने Replay कर दिया! आप खुद महसूस करेंगे कि ये गाना अब आपके दिमाग में भी Auto Mode में लोड हो चुका है। अभी तो ये कई घंटों तक बजता रहेगा!
फिल्म इंडस्ट्री शुरू होने तक तवायफ, बाई और जान जैसे पाक शब्दों का मतलब बहुत गलत हो गया था। तब इन गायिकाओं ने अपने नाम के साथ देवी या बेगम शब्द जोड़ना शुरू कर दिया।
बनारस घराने की मशहूर ठुमरी कलाकर रसूलन बाई (1902-1974 ) के गाने कभी इलाहाबाद रेडियो से बजा करते थे। बाद में इसी रेडियो स्टेशन के बाहर रसूलन बाई चाय की गुमटी पर चाय के साथ छोटी मोटी चीज़ें बेचकर गुज़ारा किया करती थीं। इन्होंने रेडियो स्टेशन के अंदर लगी बहुत सारी फोटो में से अपनी फोटो के नीचे रसूलन बाई लिखा देखने के बाद बाई होने का दर्द कुछ ऐसे बयां किया था:
“बाकी सब बाई देवी बन गईं, एक मैं ही बाई रह गई.”
इनके बारे में और विशेषतः उनकी ठुमरी 'फुल गेंदवा ना मारो...' के दो अलग अलग वर्शन के बारे में भी बातें होंगी आने वाले समय में। अभी तो सफर शुरू ही हुआ है। अगले हफ्ते फिर मिलेंगे। तब तक आज के सारे गाने सुन के रखिए।
पंकज खन्ना
9424810575